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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० १३.६८६८. अथ निर्वृतात्मवदशरीरत्वादेव न संभवति सृष्टिसंहारकर्तेश्वर इति प्रत्यनुमानो. दयात्कथं न प्रकरणसम इति चेतः उच्यते-अत्र त्वदीयानमाने साध्यमान ईश्वरो धर्मी त्वया प्रतीतः, अप्रतीतो वाभिप्रेयते ? अप्रतीतश्चेत् तदा त्वत्परिकल्पितहेतोराश्रयासिद्धिदोषः प्रसज्येत । प्रतीतश्चेत् तहि येन प्रमाणेन प्रतीतस्तेनैव स्वयमुद्भावितनिजतनुरपि किमिति नाभ्युपेयत इति कथमशरीरत्वम् । ततो न प्रकरणसमदोषता हेतोः । अतः साधूक्तं 'सृष्टिसंहारकृच्छिवः' इति । ९. तथा विभुराकाशवत्सर्वजगद्व्यापकः । नियतकस्थानवतित्वे ह्यनियतप्रदेशवर्तिनां पदार्थानां प्रतिनियतयथावनिर्माणानुपपत्तेः। न होकस्थानस्थितः कुम्भकारोऽपि दूरतरघटादिघटनायां व्याप्रियते, तस्माद्विभुः। १०. तथा नित्यैकसर्वज्ञः। नित्यश्वासावेकश्च नित्यैकः स चासौ सर्वज्ञश्चेति विशेषणत्यसमासः। तत्र नित्योऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपः कूटस्थः। ईश्वरस्य ह्यानित्यत्वे पराधीनोत्पत्ति. सव्यपेक्षया कृतकत्वप्राप्तिः। स्वोत्पत्तावपेक्षितपरव्यापारो हि भावः कृतक इष्यते। कृतकश्चेत् ६८. शंका -'ईश्वर सृष्टि तथा संहारका कर्ता नहीं है क्योंकि वह अशरीरी है जैसे कि मुक्तजीव' यह प्रत्यनुमान मौजूद है अतः कायंत्व हेतु प्रकरणसम क्यों नहीं होता है ? समाधान-आपने इस प्रत्यनुमानमें ईश्वरको धर्मी बनाया है। इस धर्मीरूप ईश्वरको आप जानते हैं या नहीं ? यदि नहीं जानते; तब आश्रय-क्षको असिद्धि होनेसे हेतु आश्रयासिद्ध हो जायेगा। यदि जानते हैं, तब जिस प्रमाणसे आपने धर्मीरूप ईश्वरको जाना है उसी प्रमाणसे जिसने अपना शरीर स्वयं बनाया है ऐसे ईश्वरको क्यों नहीं मान लेते ? तब वह अशरीर कैसे सिद्ध होगा? अतः कार्यत्व हेतुमें प्रकरणसम दोष नहीं है इसलिए ठीक ही कहा है कि शिव सृष्टि तथा संहारके विधाता हैं। ६९. ईश्वर आकाशकी तरह समस्त जगत् में व्यापक है। यदि ईश्वरको किसी नियत स्थानमें रहनेवाला माना जाय; तब विभिन्न देशवर्ती पदार्थों का अपने निश्चित स्वरूपमें यथावत् निर्माण नहीं हो सकेगा। देखो, एक स्थानमें रहनेवाला कुम्हार अति दूर देशमें घड़ेको उत्पन्न तो नहीं कर सकता। अतः समस्त जगत्में पदार्थोकी प्रतिनियत रूपमें उत्पत्ति ही ईश्वरको व्यापक सिद्ध कर देती है; क्योंकि जहां ही ईश्वर न होगा वहीं कार्योंकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। - १०. ईश्वर नित्य है, एक है तथा सर्वज्ञ है । 'नित्यैकसर्वज्ञः' पदमें नित्य, एक और सर्वज्ञ इन तीन विशेषणोंका समास है। नित्य-ईश्वरके किसी पूर्व स्वभावका विनाश तथा नवोन स्वभाव का उत्पाद नहीं होता। किन्तु वह सदा एक रूपमें स्थिर रहनेवाला है, अपरिवर्तनशील है। अतएव वह कूटस्थनित्य है, ईश्वरको अनित्य माना जाय; तो ईश्वर अपनी उत्पत्तिमें भी अन्य १. "बोधाधारेऽधिष्ठातरि साध्ये न साध्यविकलत्वम् । नापि विरुद्धत्वम् । न च कार्यत्वं बुद्धिमन्तमधिष्ठातार व्यभिचरतीत्यव्यभिचारोपलम्भसामदुिपलभ्यमान पक्षे क्षित्वादिसंपादनसमर्थमेवाधिष्ठात साधयतोति । न च पित्याधुपादानोपकरणानभिज्ञः क्षित्यादिसंपादनसमर्थ इति परमाण्वादिविषयज्ञानं ततकर्तुर्लभ्यते ।" -प्रश. व्यो. पृ. ३०२। "तथाहि तनुभुवनाद्यभिज्ञः कर्ता नानित्यासर्वविषयबुद्धिमान् तत्कर्तुस्तदुपादानाद्यनभिज्ञत्वप्रसङ्गात् । न ह्येवंवित्रस्तदुपादानाद्यभिज्ञो दृष्टः यथाऽस्मदादिः तदुपादानाद्यभिज्ञश्चायं तस्मात्तथेति ।" -न्यायवा. ता. पृ. ६०४ । “यत् तदीश्वरस्य ऐश्वयं कि तन्नित्यमनित्यमिति ?""नित्यम् इति ब्रूमः""""अथास्य बुद्धिनित्यत्वे किं प्रमाणमिति ? नन्विदमेव बुद्धिमत्कारणाधिष्ठिताः परमाणवः प्रवर्तन्त इति ।"-न्यायवा. पृ. ४६४ । "तस्य हि ज्ञानक्रियाशक्ती नित्ये इति ऐश्वर्य नित्यम् ।" -न्यायवा. ता. दी. पृ. ५१०। “न च बुद्धीच्छाप्रयत्नानां नित्यत्वे कश्चिद्विरोध: । दृष्टा हि रूपादीनां गुणानाम् आश्रयभेदेन द्वयी गतिः तथा बुद्धचादीनामपि भविष्यति ।" -प्रशस्त. कन्द. पृ. ५५ । व्यो. पृ. ३०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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