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-का. १३.६७]
नैयायिकमतम् । करोतीति सृष्टिसंहारकृत। केवलायाः सृष्टेः करणे 'निरन्तरोंत्पाद्यमानोऽसंख्यः प्राणिगणो भुवनत्रयेऽपि न मायादिति सृष्टिवत्संहारस्यापि करणम् । अत्र प्रयोगमेवं शैवा व्याहरन्ते-भूभूधरसुधाकरदिनकरमकराकरादिकं बुद्धिमत्पूर्वकम्, कार्यत्वात्, यद्यत्कार्य तत्तद् बुद्धिमत्पूर्वकं यथा घटः, कार्य चेदम्, तस्माद बुद्धिमत्पूर्वकम् । यश्चास्य बुद्धिमान्स्रष्टा स ईश्वर एवेत्यन्वयः। व्यतिरेके गगनम् । न चायमसिद्धो हेतुः, भूभूधरादीनां स्वस्वकारणकलापजन्यत्वेनावय वितयाँ वा कार्यत्वस्य जगति सुप्रसिद्धत्वात्,। नापि विरुद्धोऽनैकान्तिको वा; विपक्षावत्यन्तं व्यावृत्तत्वात् । नापि कालात्ययापदिष्टः, प्रत्यक्षागमाबाध्यमानसाध्यधर्ममिविषये हेतोः प्रवर्तनात् । नापि प्रकरणसमः; तत्प्रतिपन्थिपदार्थस्वरूपसमर्थनप्रथितप्रत्यनुमानोवयाभावात् ।
सृष्टि और संहार करते हैं। यदि केवल सृष्टि-ही-सृष्टि हो, तो निरन्तर उत्पन्न होते रहनेवाले असंख्य प्राणी तीनों लोकोंमें भी नहीं समायेंगे । इसलिए सृष्टिकी तरह संहार भी आवश्यक है अतः महेश्वर इस संहार-लीलाको भी करते हैं । शैव लोग जगत्को महेश्वरकर्तृक सिद्ध करने के लिए अनुमानका प्रयोग इस प्रकार करते हैं-पृथिवी, पर्वत, चन्द्र, सूर्य तथा समुद्र आदि सभी बुद्धिमान्के द्वारा उत्पन्न किये गये हैं, क्योंकि ये कार्य हैं, जो-जो कार्य होते हैं वे किसी न किसी बुद्धिमान्के द्वारा ही किये जाते हैं जैसे कि घड़ा, चूंकि यह जगत् भी कार्य है, अतः इसे भी किसी बुद्धिमान्के द्वारा ही निर्मित होना चाहिए। जो इस जगत्का रचयिता बुद्धिमान है वही तो ईश्वर है। जो बुद्धिमान्के द्वारा उत्पन्न नहीं किये गये वे कार्य भी नहीं हैं जैसे कि आकाश । यह व्यतिरेक दृष्टान्त है । यह कार्यत्व हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि पृथिवी, पर्वत आदि सभी पदार्थ अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न होनेके कारण तथा अवयविरूप होनेके कारण कार्यरूप हैं। यह बात जगत्प्रसिद्ध है । यह कार्यत्व हेतु विरुद्ध या अनैकान्तिक भी नहीं है, क्यों।क जिन्हें बुद्धिमानोंने उत्पन्न नहीं किया ऐसे आकाश आदि विपक्षभूत पदार्थों में बिलकुल नहीं पाया जाता है। यह हेतु कालात्ययापदिष्ट-बाधित भी नहीं है। क्योंकि इस हेतुके विषय-साध्य में प्रत्यक्ष तथा आगमसे कोई भी बाधा नहीं आती। यह हेतु प्रकरणसम भी नहीं है। क्योंकि जगत्को अबुद्धिमत्पूर्वक सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रत्यनुमानविरोधी अनुमान नहीं है। जिस हेतके साध्यसे विपरीत अर्थको सिद्ध करनेवाले प्रसिद्ध प्रत्यनुमानका सद्भाव होता है वह हेतु प्रकरणसम कहलाता है।
१. -न्तरोत्पद्यमान-प. १, २, भ. १, २ । २. "सिद्धे व कार्यत्वे कर्तृपूर्वकत्वं साध्यते । तथा च विवादास्पदं बोधाधारकारणम् कार्यत्वाद्, यद् यद् कार्य तत्तद् बोधाधारकारणम् यथा घटादि, तथा चेदं कार्य तस्मात बोधाधारकारणमिति ।"-प्रश. व्यो. पृ. ३.२। “सामान्यतो दृष्टं तु लिङ्गमीश्वरसत्त:यामिदं ब्रूमहे पृथिव्यादि कार्य धर्मि तदुत्पत्तिप्रकारप्रयोजनाद्यभिज्ञकर्तपूर्वकमिति साध्यो धर्मः कार्यत्वाद् घटादिवत् ।" -न्यायम. प्रमा. पृ. १७८ । "महाभूतचतुष्टयमुपलब्धिमत्पूर्वकं कार्यत्वात्" सावयवत्वात् ।"-प्रशस्त. कन्द. पृ. ५७ । वंशे. उप. पू. ६२। "कार्याऽऽयोजनधूत्यादेः पदात प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः ।"-न्यायकुसु. ५.१ "तथाहि विवादाध्यासितमुपलब्धिमत्कारणपूर्वकं अभूत्वाभावित्वाद्वस्त्रादिवदिति सामान्यव्याप्तेरनवद्यत्वेन निराकर्त्तमशक्यत्वात्तत्सामान्यसिद्धो पारिशेष्यात्कार्यत्वाच्च कर्तविशेषसिद्धिश्चित्रादिकार्यविशेषात्कत्तविशेषसिद्धिवत ।" -न्यायसा. पृ. ३६। "तत्राविद्ध कर्णोपन्यस्तम् ईश्वरसाधने प्रमाणद्वयमाहयतस्वारम्भकेत्यादि । यत्स्वारम्भकावयवसन्निवेशविशेषवत् । बुद्धिमद्धे तु गम्यं तत्तद्यथा कलशादिकम् ।" -तत्त्वसं. श्लो. ४७। ३. स्वकारण-भ. २। ४.-या का-भ. २। ५. -ति प्रसि-भ. २।
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