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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० १३. ९५ -
जायते, तेनैतेषां प्रायो मतसुल्यता । उभयेऽप्येते तपस्विनोऽभिधीयन्ते । ते च शैवादिभेदेन चतुर्धा भवन्ति । तदुक्तम् —
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"आधारभस्मकौपीन - जेटायज्ञोपवीतिनः । स्वस्वाचारादिभेदेन चतुर्धा स्युस्तपस्विनः ॥ १ ॥ शेवाः पाशुपताश्चैव महाव्रतधरास्तथा ।
तुर्याः कालमुखा मुख्या भेदा एते तपस्विनाम् ॥ २॥”
$ ५ तेषामन्तर्भेदा भरटभक्तेरलैङ्गिकतापसादयो भवन्ति । भरटादीनां व्रतग्रहणे ब्राह्मणादिवर्णनियमो नास्ति । यस्य तु शिवे भक्तिः स व्रती भरटादिर्भवेत् । परं शास्त्रेषु नैयायिकाः सदा शिवभक्तत्वाच्छैवा इत्युच्यन्ते; वैशेषिकास्तु पाशुपता इति । तेन नैयायिकशासनं शैवमाख्यायते वैशेषिकदर्शनं च पाशुपतमिति । इदं मया यथाश्रुतं यथादृष्टं चात्राभिदधे । तत्तद्विशेषस्तु तद्ग्रन्येभ्यो विज्ञेयः ॥१२॥
६. अथ पूर्वप्रतिज्ञातं नैयायिकमतसंक्षेपमेवाह
अक्ष (आक्ष ) पादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिवः । विभुर्नित्यै सर्वज्ञो नित्यबुद्धिसमाश्रयः ॥१३॥
९७. व्याख्या - अक्षपादेनाद्येन गुरुणा यतः प्रणीतं नैयायिकमतस्य मूलसूत्रं तेन नैयायिका अक्षपादा अभिधीयन्ते, तन्मतं चाक्षपादमतमिति । तस्मिन्नाक्षपादमते शिवो महेश्वरः, सृष्टिश्वराचरस्य जगतो निर्माणम्, संहारस्तद्विनाशः द्वन्द्वे सृष्टिसंहारौ, "तावसावचिन्त्यशक्ति माहात्म्येन दूसरेके तत्वोंमें अन्तर्भाव कर लिया जाता है तब उनमें प्रायः बहुत कम मदभेद रहता है। इस लिए प्राय: इनके मत तुल्य ही हैं । ये दोनों ही तपस्वी कहे जाते हैं । इनके शैव आदि चार भेद हैं । कहा भी है- " आधार रहनेके स्थान, आसन आदि, भस्म, कौपीन, जटा तथा यज्ञोपवीतको धारण करनेवाले वे तपस्वी अपने-अपने आचारके भेदसे चार प्रकारके हैं-१ शैव, २ पाशुपत, ३ महाव्रतधर तथा ४ कालमुख । तपस्वियोंके ये चार ही मुख्य भेद हैं ।"
५. इनके अवान्तर भेद तो भरट, भक्त, लैंगिक तथा तापस आदि अनेक हैं । इन भरट आदिके व्रत नियम धारण करने के लिए ब्राह्मण आदि होनेकी आवश्यकता नहीं है । जिस किसी भी व्यक्तिको शिव भक्ति हो वह व्रत धारण करके भरट आदि हो सकता है । नैयायिक लोग सदा शिवकी भक्ति करते हैं अतः शास्त्रों में इन्हें शेव कहा जाता है, तथा वैशेषिकों को पाशुपत कहते हैं । यही कारण है कि नैयायिकों का दर्शन 'शैव' कहा जाता है तथा वैशेषिकों का दर्शन पाशुपत । यह सब वर्णन मैंने जैसा कुछ देखा तथा परम्परासे सुना, उसीके आधारसे किया है। इनका विशेष • वर्णन तो इनके ग्रन्थोंसे ही जानना चाहिए ।
$ ६. अब जैसा कि पहले कहा था- नैयायिकके मतका संक्षेपसे वर्णन करते हैं
आक्षपाद - नैयायिक मत में जगत्की सृष्टि तथा संहारको करनेवाला, व्यापक, नित्य, एक, सर्वज्ञ तथा नित्यज्ञानशाली शिव देवता हैं ॥ १३ ॥
७. अक्षपाद नामके आदि गुरुने नैयायिक मतके मूलसूत्र - न्यायसूत्र की रचना की है इसलिए नैयायिक आक्षपाद कहलाते हैं, और नैयायिक मत भी आक्षपादमत कहा जाता है । इस आक्षपाद मत में शिव - महेश्वर ही आराध्य देव हैं। महेश्वर सृष्टि-चर-अचररूप जगत्का निर्माण तथा उसका संहार अर्थात् विनाश करनेवाले हैं। महेश्वरकी शक्तिका माहात्म्य अचिन्त्य है । उससे वे जगत् की २. भक्तरले - प. १, २ । ३. यो ज्ञेयः भ० २ । ४. समाश्रितः भ. २ । तो सौ वा चिन्त्य प १, २,
भ. १ ।
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१. कूपीनां जटा भ. २ । ५. तौ चाचिन्त्य - भ. २
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