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________________ wwwwwwwwww wwwwww -का० १२.६४] नैयायिकमतम् । ७७ १, शोष्यकौशिकः २, गार्यः ३, 'मैत्र्यः ४, अकोरुषः ५, ईशानः ६, पारगार्म्यः ७, कपिलाण्ड ८, मनुष्यकः ९, कुशिकः १०, अत्रिः ११, पिङ्गलः १२, पुष्पकः १३, बृहदार्यः १४, अगस्तिः १५, संतानः १६, राशीकरः १७, विद्यागुरुश्च १८॥ एते तेषां तीर्थेशाः पूजनीयाः। एतेषां पूजाप्रणिधानविधिस्तु तदागमाद्वेदितव्यः। $ ३. तेषां सर्वतीर्थेषु भरटा एव पूजकाः। देवानां नमस्कारो न सन्मुखैः कार्यः। तेषु ये निर्विकारास्ते स्वमीमांसागतमिदं पद्यं दर्शयन्ति "न स्वधुनी न फणिनो न कपालदाम, नेन्दोः कला न गिरिजा न जटा न भस्म । यत्रान्यदेव च न किंचिदुपास्महे तद्रूपं पुराणमुनिशीलितमीश्वरस्य ।। १॥ स एव योगिनां सेव्यो पर्वाचीनस्तु भोगभाक। स ध्यायमानो राज्यादिसुखलुब्धैनिषेव्यते ॥२॥" उक्तं च तैः स्वयोगशास्त्रे "वीतरागं स्मरन् योगी वीतरागत्वमश्नुते । सरागं ध्यायतस्तस्य सरागत्वं तु निश्चितम् ॥३॥ येन येन हि भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा ॥४॥" इति । ६४. एतत्सर्व लिङ्गवेषदेवादिस्वरूपं वैशेषिकमतेऽप्यवसातव्यम् । यतो नैयायिकवैशेषिकाणां हि मिथः प्रमाणतत्त्वानां संख्याभेदे सत्यप्यन्योन्यं तत्वानामन्तर्भावनेऽल्पीयानेव भेदो समर्थ है। ये ईश्वरके अठारह अवतार हैं-१ नकुली, २ शोष्यकोशिक, ३ गार्य, ४ मैथ्य, ५ अकौरुष, ६ ईशान, ७ परम गार्ग्य, ८ कपिलाण्ड, ९ मनुष्यक, १० कुशिक, ११ अत्रि, १२ पिङ्गल, १३ पुष्पक, १४ बृहदाये, १५ अगस्ति, १६ सन्तान, १७ राशीकर तथा १८ विद्यागुरु । ये अठारह तीर्थेश पूजनीय हैं। इनके पूजा तथा ध्यान आदिकी विधि उन्हीं के आगमोंसे समझ लेनी चाहिए। ६३. इनके सब तीर्थों में भरट पूजा करनेवाले होते हैं। ये देवोंको सामनेसे नमस्कार नहीं करते। इनमें जो निर्विकार हैं वे अपनी मीमांसाका यह पद्य प्रायः कहा करते हैं-"हम लोग तो प्राचीन मुनियोंके द्वारा ध्याये गये ईश्वरके उस निर्विकार स्वरूपको उपासना करते हैं जिसमें न तो स्वर्गगंगा है, न सर्प हैं, न मुण्डमाला है, न चन्द्रमाकी कला है, न आधे शरीरमें पार्वती ही हैं, न जटाएं हैं, न भस्म ही लिपटी है तथा इसी प्रकारको अन्य कोई भी उपाधियां नहीं हैं। ऐसा ही निरुपाधि निर्विकार ईश्वर हम लोगोंका उपास्य है ॥१॥ ईश्वरका निर्गुण निर्विकार रूप ही योगियोंके द्वारा सेव्य-ध्येय है। आजकल ईश्वरका जो रूप पूजा जाता है वह तो भोगीरूप है। और राज्य आदि ऐहिक सुखोंके लोलुपी ही ऐसे रूपकी उपासना करते हैं ॥२॥" उन्होंने अपने योगशास्त्र में भी कहा है-"वीतरागका स्मरण-ध्यान करनेवाला योगी वीतरागताको प्राप्त कर लेता है और सरागके ध्यान करनेवालेकी सरागता निश्चित है ॥१॥ तात्पर्य यह कि-मनरूप यन्त्रको चलानेवाला आत्मा जिस-जिस भावसे युक्त होकर जैसे ध्येयका ध्यान करता है वह स्वयं तन्मय हो जाता है। देखो, स्फटिक मणिको जिस-जिस प्रकारकी उपाधियाँ मिलती हैं उसका रंग उन्हींके अनुसार नानाप्रकारका हो जाता है ॥२॥" १४. नैयायिकोंकी तरह वैशेषिक मतमें भी लिंग, वेष आदि प्रायः इसी प्रकारके हैं । यद्यपि नैयायिकों और वैशेषिकोंको प्रमाण या तत्त्वोंको संख्यामें भेद है फिर भी जब एकके तत्त्वोंका १. शोषिकौशि-भ. २। २. मैत्री क.। मैत्रः प. १, २, भ. १, २। ३. अकोरुकः भ. २। ४.-मादवेतव्यः भ.२। ५. वानाश्च नम- भ. २। ६. यत्रवा-भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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