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________________ भिक्षुन्यायकर्णिका पादनमभीष्टमस्तिमर्थात् पूर्वं दर्शनं ततः सामान्यग्रहणात्मकमवग्रहः। एतेन प्रतीयते यत् दर्शनमेव अवग्रहरूपे परिणतं भवति। इदानीमवग्रहस्य भेदद्वयं सूत्रद्वारा प्रस्तौतिव्यञ्जनार्थयोः। व्यञ्जनेन-इन्द्रियार्थसंबन्धरूपेण व्यञ्जनस्य- शब्दादेरर्थस्य ग्रहणम्-अव्यक्तः परिच्छेदः व्यञ्जनावग्रहः । ततो मनाग व्यक्तं जातिद्रव्यगुणकल्पनारहितमर्थग्रहणमर्थावग्रहः', यथा एतत् किञ्चिद् अस्ति। अवग्रह के दो भेद हैं- व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह। इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध अभिव्यक्ति का हेतु है, इसलिए उसे व्यञ्जन कहा जाता है। शब्द आदि अर्थ जो अभिव्यक्त होते हैं, वे भी व्यञ्जन कहलाते हैं। व्यञ्जन के द्वारा व्यञ्जन के ग्रहण-अव्यक्त ज्ञान को व्यञ्जनावग्रह कहा जाता है। व्यञ्जनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त, किन्तु जाति, द्रव्य, गुण आदि की कल्पना से रहित जो अर्थ का ग्रहण होता है वह अर्थावग्रह है, जैसे- यह कुछ है। 1. व्यञ्जनेन व्यञ्जनस्य अवग्रह:-व्यञ्जनावग्रहः। अत्र मध्यमपदलोपी समासः । अयमान्तमौहूर्तिकः। 2. एकसामयिकः। 3. अनध्यवसायो न निर्णयोन्मुख इति न प्रमाणम्। अवग्रहस्तु निर्णयोन्मुख इति प्रामाण्यमस्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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