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________________ द्वितीयो विभागः 5. रूपिद्रव्यसाक्षात्करणमवधिः । द्रव्य-क्षेत्र - काल- भावादिविविधमर्यादाबद्धत्वात् अवधिः । अनुगामि- अननुगामि-वर्धमान हीयमान- प्रतिपातिअप्रतिपाति भेदात् षोढा । रूपी द्रव्य का साक्षात् करने वाला अवधिज्ञान है । द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव आदि की विविध मर्यादाओं से बंधा होने के कारण इस ज्ञान को अवधि कहा जाता है। इसके छह प्रकार हैं : 1. अनुगमी - जो साथ - साथ चलता है । 2. अननुगामी - जो साथ-साथ नहीं चलता । 3. वर्धमान - जो क्रमशः बढ़ता है । 4. हीयमान - जो क्रमशः हीन होता है । 5. प्रतिपाति- जो प्राप्त होने के बाद वापस चला जाता है । २७ 6. अप्रतिपाति — जो प्राप्त होने के बाद वापस नहीं जाता है । न्या. प्र. - येन ज्ञानेन रूपिद्रव्यस्य साक्षात्कारो भवति तत् अवधिज्ञामेव । इदं ज्ञानं द्रव्यक्षेत्रकालभावादीनां विविधमर्यादाभिर्बद्धं परिच्छिन्नं भवति । अत एवेदं ज्ञानमवधिज्ञानं कथ्यते । अस्य ज्ञानस्य विविधमर्यादाबद्धता च मन: पर्यायज्ञानविवेचनावसरे स्फुटा भविष्यति । इदमवधिज्ञानं षट्प्रकारकं भवति । ते च प्रकारा इत्थम् - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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