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________________ भिक्षुन्यायकर्णिका प्रामाण्य-प्रमाण की यथार्थता का निश्चय स्वतः और परत: दोनों प्रकार से होता है। अभ्यास-परिचय आदि की स्थिति में प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है और अनभ्यास-अपरिचय आदि की स्थिति में वह प्रमाणान्तर-संवादक-प्रमाण तथा बाधक-प्रमाण के अभाव से होता है। (किसी नए तथ्य के विषय में हमारा ज्ञान होता है तब उसकी यथार्थता की पुष्टि दो हेतुओं से होती है। प्राक् ज्ञान का संवादी या समर्थक ज्ञान मिलता है तो उसकी यथार्थता निश्चित हो जाती है। प्राक् ज्ञान का विरोधी प्रमाण नहीं मिलता उस स्थिति में भी उसकी यथार्थता असंदिग्ध हो जाती है।) न्या. प्र. .- प्रमाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा। प्रमाणं यथार्थज्ञानं भवति। तच्च प्रमाशब्देनाप्युच्यते। यदा यथार्थज्ञानं प्रमाणशब्देन गृह्यते तदा तस्यासाधरणो धर्मः प्रामाण्य-मिति कथ्यते । यदा च यथार्थज्ञानं प्रमा शब्देनोच्यते तदा तस्यासाधारणो धर्मः प्रमात्वमित्युच्यते।। एवमेवायथार्थज्ञानमप्रमाणम् - अप्रमा वोच्यते। अत्र असाधारणो धर्मः अप्रामाण्यम् अप्रमात्वं वा भवतीति वेदितव्यम् । विषयेऽस्मिन् न्यायदर्शनाभिमतमित्थम् - प्रामाण्यस्य अप्रामाण्यस्य च ज्ञानस्य आश्रयभूतं ज्ञानं व्यवसाय इत्युच्यते। तच्च व्यवसायात्मकं ज्ञानम् अनुव्यवसायेन गृह्यते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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