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________________ १० भिक्षन्यायकर्णिका पूर्वं लक्षणप्रमाणाभ्यामर्थसिद्धिरुक्ता। तत्र लक्षणं तदाभासाश्च व्याख्याताः। सम्प्रति प्रमाणं लक्षयन् तल्लक्षणमवतारयति - 10. यथार्थज्ञानं प्रमाणम्। प्रकर्षण-विपर्ययाद्यभावेन मीयतेऽर्थो येन तत् प्रमाणम्। ज्ञानम् अर्थप्रकाशकम्। तदयथार्थमपि भवतीति तद्व्यवच्छित्तये यथार्थमिति विशेषणम्। प्रमेयस्य नान्यथा ग्रहणं यथार्थत्वमस्य। यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहा जाता है। प्रकृष्ट रूप-विपर्यय, संशय आदि के अभाव से पदार्थ का जो मान-परिच्छेद किया जाता है, वह प्रमाण है। यह प्रमाण शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। ज्ञान अर्थ का प्रकाशक होता है। वह अयथार्थ भी हो सकता है। इस अयथार्थता को पृथक् करने के लिए ज्ञान के साथ 'यथार्थ' विशेषण जोड़ा गया है। प्रमेय का अन्यथा ग्रहण न होना ही प्रमाण की यथार्थता है। न्या. प्र. - यथार्थज्ञानं प्रमाणम्।। ज्ञानम् अर्थप्रकाशकं भवति। तच्च यथार्थम् अयथार्थञ्चेति द्विविधम् । तत्र तद्वति तत्प्रकारकं ज्ञानं यथार्थज्ञानं कथ्यते। घटत्ववति घटे घटत्वप्रकारकं ज्ञानम् अयं घट इति ज्ञानं यथार्थज्ञानम् । तद्धर्मरहिते यदि तत्प्रकारकं ज्ञानं भवति चेत् तद् अयथार्थज्ञानं कथ्यते। अनयोनियोर्मध्ये यत् यथार्थज्ञानं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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