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________________ भिक्षुन्यायकर्णिका जैसे-पशु का लक्षण विषाण। (पशु के सींग होते हैं किन्तु सब पशुओं के सींग नहीं होते। गधा एक पशु है पर उसके सींग नहीं होते अत: उक्त लक्षण सम्पूर्ण लक्ष्य में व्याप्त नहीं है।) न्या. प्र. - तत्र लक्ष्यैकदेशवृत्तिरव्याप्त :- यल्लक्षणं लक्ष्यस्यैकदेशे अर्थात् एकस्मिन्नेवलक्ष्ये गच्छेत्, अपरस्मिन् लक्ष्ये च न गच्छेत् तल्लक्षणम् अव्याप्तलक्षणाभास इत्युच्यते। तदेवलक्षणं समीचीनं भवति, यत् प्रत्येकं लक्ष्ये गच्छेत् । यच्च प्रत्येकं लक्ष्ये न गत्वा यस्मिन् कस्मिन् एकस्मिन्नेव वा लक्ष्ये गच्छेत् तत्तु लक्षणाभास एव। यथा पशोर्लक्षणं यदि विषाणित्वमिति क्रियते चेत् लक्षणमिदं गर्दभे-अश्वे-हस्तिनि च नैव याति । तस्मात् लक्षणाभासोऽयम्। अतिव्याप्तं लक्षयितुं सूत्रयति - 8. लक्ष्यालक्ष्यवृत्तिरतिव्याप्तः। यथा-वायोर्गतिमत्त्वम्। जो लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में मिलता है वह अतिव्याप्त लक्षणाभास है। जैसे-वायु का लक्षण गतिशीलता। (वायु गतिमान है पर उससे अतिरिक्त पदार्थ भी गतिमान हैं। अत: उक्त लक्षण अतिव्याप्त है।) न्या. प्र.- इदानीमतिव्याप्तलक्षणाभासं लक्षयति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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