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भिक्षुन्यायकर्णिका
(छ)
(ङ) संदिग्धसाधन- जो मरणधर्मा नहीं होता वह रागी
भी नहीं होता, जैसे- रथ्यापुरुष। (च) संदिग्धोभय-जो अल्पज्ञ नहीं होता वह रागी भी
नहीं होता, जैसे – रथ्यापुरुष । दूसरे का आशय जानना कठिन होता है, इसलिए व्यतिरेकी रथ्यापुरुष में राग और अल्पज्ञता का नास्तित्व संदिग्ध है। विपरीतव्यतिरेक-शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृतक है। जो अकृतक होता है वह नित्य होता है, जैसेआकाश। यह विपरीतव्यतिरेकी दृष्टान्ताभास है। व्यतिरेक में साध्याभाव का साधनाभाव से व्याप्त निर्देश होना चाहिए। यहां वैसा नहीं है। इसलिए यहां विपरीत-व्यतिरेकत्व है। कुछ प्रामाणिकों द्वारा चार दृष्टान्ताभास और माने गए हैं - 1. अनन्वय 2. अप्रदर्शितान्वय 3. अव्यतिरेक 4. अप्रदर्शितव्यतिरेक अनन्वय- विवक्षित पुरुष रागी है, क्योंकि वह बोलता है, जैसे -- इष्टपुरुष । यह अनन्वय है। यद्यपि इष्टपुरुष में राग और वक्तृत्व रूप साध्य और साधनधर्म दृष्ट हैं, फिर भी जो वक्ता होता है वह रागी होता है - यह व्याप्ति असिद्ध है, इसलिए यह अनन्वयदृष्टान्ताभास है।
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