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________________ परिशिष्ट २३७ 6. 3. न वीतरागः कश्चिद् विवक्षितः पुरुषः, वक्तृत्वात् । यः पुनर्वीतरागो न स वक्ता यथोपलखंड इति अव्यतिरेक: । यद्यप्युपलखण्डादुभयं व्यावृत्तं तथापि व्याप्त्या व्यतिरेकासिद्धेरव्यतिरेकत्वम्। अनित्यः शब्दः, कृतकत्वात्, आकाशवदिति अप्रदर्शितव्यतिरेक: । यदनित्यं न स्यात् तत् कृतकमपि न स्यादिति सन्नपि व्यतिरेको नोक्तः । व्यतिरेकी दृष्टान्ताभास - (क) असिद्धसाध्य-शब्द अपौरुषेय है, क्योंकि वह अमूर्त है। जो अपौरुषेय नहीं होता वह अमूर्त भी नहीं होता, जैसे- परमाणु । परमाणु अपौरुषेय होने पर मूर्त होता है। इसलिए यह असिद्धसाध्य व्यतिरेकी दृष्टान्ताभास है। (ख) असिद्धसाधन-जो अपौरुषेय नहीं होता वह अमूर्त भी नहीं होता, जैसे- दुःख। दुःख पौरुषेय होने पर भी अमूर्त होता है। इसलिए यह असिद्धसाधन .. व्यतिरेकी दृष्टान्ताभास है। (ग) असिद्धोभय-जो अपौरुषेय नहीं होता वह अमूर्त भी नहीं होता, जैसे - आकाश। आकाश अपौरुषेय भी है और अमूर्त भी। इसलिए यह असिद्धोभय व्यतिरेकी दृष्टान्ताभास है। (घ) संदिग्धसाध्य-जो रागी नहीं होता वह वक्ता भी नहीं होता, जैसे- रथ्यापुरुष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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