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सप्तमो विभाग:
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7. शोणितं प्राणशक्त्यनुगाम्येव।
रक्तं हि प्राणशक्तिहेतुकं भवति, तद्विरहे तस्यानुत्पादात्, अन्यथा तद्गतिनिरोधस्य निर्हेतुकत्वात्। किञ्च सात्मके शरीरे आहारग्रहणम्, ततः शोणितोत्पत्तिः, प्राणापानेन तस्याऽखिले वपुषि सञ्चारः, तेन शरीरावयवानां सक्रियत्वम्, ततो हीन्द्रियाणि मनश्च गृह्णन्ति स्वप्रमेयम्। देहिनि अन्यत्र गते सर्वत्रापि निष्क्रियत्वोपलब्धेः। चैतन्य का मूल रक्त भी नहीं है, क्योंकि वह प्राणशक्ति का अनुगामी है। __ रक्त का हेतु प्राणशक्ति है। उसके अभाव में रक्त उत्पन्न नहीं होता। यदि ऐसा नहीं माना जाए तो रक्त के गतिरोध का कोई हेतु ही नहीं रहता। क्योंकि सजीव शरीर आहार ग्रहण करता है, उससे रक्त की उत्पत्ति होती है। प्राण और अपान के द्वारा सारे शरीर में उसका संचार होता है, उससे शरीर के सब अवयव सक्रिय होते हैं, उनकी सक्रियता होने पर इन्द्रिय और मन अपने-अपने विषय का ग्रहण करते हैं। आत्मा के अन्यत्र चले जाने पर ये सब निष्क्रिय हो जाते हैं। न्या. प्र.- चैतन्यस्य मूलं रक्तमपि नास्ति, यतोहि तद् रक्तं, प्राणशक्तेरनुगामि अस्ति अर्थात् सत्यां प्राणशक्तौ भवति रक्तोत्पादः। तद्विरहे प्राणशक्तिविरहे तस्य रक्तस्य अनुत्पादात् अर्थात् प्राणशक्तेरभावे नैव भवति उत्पादो रक्तस्य।
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