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षष्ठो विभागः
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प्रयोजनवश किसी धर्म की विवक्षा की जाती है और प्रयोजन के अभाव में किसी धर्म की विवक्षा नहीं की जाती, जैसे- किसी धर्मी के नित्यत्व की विवक्षा में उसमें विद्यमान उत्पाद और विनाश धर्मों का ग्रहण नहीं किया जाता तथा अनित्यत्व की विवक्षा में वस्तु में विद्यमान ध्रौव्य का ग्रहण नहीं किया जाता। इसलिए एक रहने वाले इन विरोधी धर्मों के ग्रहण और अग्रहण से एक ही पदार्थ नित्य और अनित्य कहलाता है।
इसी प्रकार सदृश धर्म की अपेक्षा से पदार्थ सामान्य है और विलक्षण धर्म की अपेक्षा से वह विशेष । स्वरूप की दृष्टि से सत् और पररूप की दृष्टि से असत् है। एक-एक धर्म की अपेक्षा से वाच्य और एक साथ अनेक धर्मों की अपेक्षा से अवाच्य है।
एक ही मनुष्य अपेक्षाभेद से पिता, भाई, पुत्र, मामा और भानजा होता है। इस प्रकार एक व्यक्ति में अनेक पर्याय प्राप्त होते हैं। न्या. प्र.- अस्यायमभिप्रायः प्रमाणस्य विषयो यद्वस्तु तद् यदा वाग् विषयो भवति अर्थात् वाणी द्वारा तस्य प्रकाशनं भवति तदा तद् वाच्यमिति कथ्यते । यद्वस्तु वाणीविषयो न भवति तत्तु अवाच्यमेव। अत्रेयमाशङ्का भवति यदेकस्मिन्नेव वस्तुनि विरोधिधर्माणां संगतिः कथं भवति? अत्र समाधानरूपेणोच्यते विवक्षाऽविवक्षातः संगतिः भवितुमर्हति।
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