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________________ षष्ठो विभागः 2. 1. उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मकं सत् । उत्तरोत्तराकाराणामुत्पत्तिः उत्पाद:, पूर्वपूर्वाकाराणां विनाशः व्ययः । एतद्द्वयपर्यायान्वयि एव ध्रौव्यं सद् उच्यते । उत्पादादयः कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नाः, तत एव सत् त्रयात्मकम्। उक्तञ्च उत्पन्नं दधिभावेन, नष्टं दुग्धतया पयः । गोरसत्वात् स्थिरं जानन्, स्याद्वाद्विड् जनोऽपि कः ॥ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक पदार्थ को सत् कहा जाता है । उत्तरोत्तर आकार की उत्पत्ति का नाम उत्पाद है और पूर्व पूर्व आकार के विनाश का नाम व्यय है । उत्पाद और व्यय इन दोनों पर्यायों में अन्वित ध्रौव्य को ही सत् कहा जाता है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर कथंचिद् भिन्न और कथंचिद् अभिन्न होते हैं । इसीलिए 'सत्' त्रयात्मकउत्पाद्-व्यय-ध्रौव्यात्मक होता है। - १६३ दूध मे जान देने पर दधि उत्पन्न हो गया । दुग्ध नष्ट हो गया, पर गोरस दोनों में अन्वयी है । इस तथ्य को जानने वाला कौन व्यक्ति स्याद्वाद का प्रतिपक्षी हो सकता है। न्या. प्र.- उत्पादो व्ययो ध्रौव्यञ्च इत्येतत् त्र्यं यत्रावतिष्ठते तदेव सत् । इदमत्रावधारणीयं यत् वस्तु सत् तत्त्वमिति त्रयोऽपि सत् केवलं पर्यायात्मकं ध्रौव्यात्मकं वा न भवति, तादृशस्य कस्यापि पदार्थस्य अभावात् । 2. देखें परिशिष्ट 1/8 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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