SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमो विभागः १४५ प्रस्तौति सम्प्रति शब्दनयम् - 11. कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदकृच्छब्दः। (क) कालेन, यथा-बभूव, भवति, भविष्यति राजगृहम्। (ख) संख्यया, यथा-एकः, एके। (ग) लिङ्गेन, यथा-नदम्, नदी। काल आदि के भेद से ध्वनि में अर्थभेद को स्वीकार करने वाले नय को शब्द नय कहा जाता है। (क) काल के द्वारा ध्वनि से अर्थभेद, जैसे राजगृह था, है और होगा। यहां कालभेद के द्वारा अर्थभेद का ग्रहण किया गया है। (ख) संख्या के द्वारा ध्वनि में अर्थभेद, जैसे- एक: (एक व्यक्ति), एके (कुछ व्यक्ति) (ग) लिंग के द्वारा ध्वनि में अर्थभेद, जैसे- नद और नदी। न्या. प्र.- कालसंख्यालिङ्गादिभेदेन एक एव शब्दो भिन्नोभवति । तादृशस्य भिन्नस्य शब्दस्यार्थोऽपि भिन्नो भवति। तादृशभिन्नार्थस्य ग्राहको नयः शब्दनयः कथ्यते । अतीतानागत वर्तमानकालिकक्रियाभिः सह प्रयुक्त एक एव राजगृहम् भिन्नतामेव याति । बभूव राजगृहम्, भवति राजगृहम् भविष्यति राजगृहम् एषु त्रिषु वाक्येषु तिसृभिः क्रियाभिः सह प्रयुक्तम् एकम् एव राजगृहम् भिन्न भिन्नमेव। यदासीत् भूतकालिकं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy