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________________ १४२ भिक्षुन्यायकर्णिका भेदग्राही व्यवहारः'। यथा-यत् सत् तद् द्रव्यं पर्यायश्च। यद् द्रव्यं तद्धर्माधर्मादिषड्विधम्। य: पर्यायः स द्विविध:-सहभावी क्रमभावी च। द्रव्यार्थिकत्वाद् असौ परमाणुं यावद् गच्छति, न तु अर्थपर्याये। भेदग्राही (विशेषग्राही) विचार को व्यवहार नय कहा जाता जैसे- जो सत् है, उसके दो भेद हैं- द्रव्य और पर्याय। जो द्रव्य है, उसके छह भेद हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, काल पुद्गल और जीव। जो पर्याय है, उसके दो भेद हैं- सहभावी और क्रमभावी। व्यवहार नय द्रव्यार्थिक है इसलिए परमाणु (द्रव्य का अन्तिम भेद या विभाग) तक इसका विषय है किन्तु अर्थपर्याय इसका विषय नहीं है। व्यंजन पर्याय इसका विषय हो सकता है। न्या. प्र.- संग्रहनयेन ये सत्वद्रव्यत्वादयो विषया गृहीतास्तेषु अभिप्रायविशेषेण यो विभागः क्रियते भेदो वा गृह्यते स व्यवहारनयः। यथा यत् सत् अस्ति तस्य द्वौ भेदौ द्रव्यं पर्यायश्च। यद् द्रव्यं तस्य षड्भेदाः सन्ति धर्मः अधर्मः आकाशम्, काल: पुद्गलः जीवश्च। अपरसंग्रहव्यवहारयोर्विषयसाम्येऽपि अपरसंग्रहः अभेदांशप्रधानः, व्यवहारश्च भेदांशप्रधानः । आद्यो भेदेऽप्यभेदं पश्यति, द्वितीयोऽभेदेऽपि भेदमित्यनयोर्विशेषः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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