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________________ १४० भिक्षुन्यायकर्णिका वर्तमानकालेऽपि भविष्यतः संकल्पः समारोपो वा कृतोऽस्ति। अनेन प्रकारेण भावी नैगमोऽयम्। सम्प्रति संग्रहनयं तद्भेदांश्च प्रस्तोतुकामः सूत्रयति - 6. अभेदग्राही संग्रहः। अभेदग्राही (सामान्यग्राही) विचार को संग्रह नय कहा जाता 7. परोऽपरश्च। महासामान्यविषयः परः, यथा-विश्वमेकम्, सताऽविशेषात् । अवान्तरसामान्यविषयोऽपरः, यथा द्रव्याणामैक्यम्, द्रव्यत्वाविशेषात्। पर्यायाणामैक्यम, पर्यायत्वाविशेषात् । संग्रह नय के दो भेद हैं- पर और अपर। महासामान्य का ग्रहण करने वाला परसंग्रह कहलाता है, जैसे- विश्व एक है, क्योंकि अस्तित्व की दृष्टि से कोई भिन्न नहीं है। अवान्तर सामान्य का ग्रहण करने वाला अपरसंग्रह कहलाता है, जैसे- सब द्रव्य एक हैं, क्योंकि द्रव्यत्व की दृष्टि से कोई भिन्न नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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