SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ भिक्षुन्यायकर्णिका उपजीवतीति उपजीवक इति स्पष्टं भवति। एतत् सर्वमभिप्रेत्य नयं व्याचिख्यासुराचार्यो नयं लक्षयन् सूत्रयतिअनिराकृतेतरांशो वस्त्वंशग्राही प्रतिपत्तुरभिप्रायो नयः'। अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो विवक्षितमंशं गृह्णन्, इतरांशान् अनिराकुर्वंश्च ज्ञातुरभिप्राय: नयः । प्रमाणस्य विषयः अखण्डं वस्तु, नयस्य च तदेकदेशः, ततो नायं प्रमाणमप्रमाणं च, किन्तु प्रमाणांशः, यथा-शरीरैकदेशो न शरीरं नाप्यशरीरम्, किन्तु शरीरांशः । वस्तु के अन्य अंशो का निराकरण न करने वाले तथा उसके एक अंश का ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा जाता है। __ अनन्त धर्मात्मक वस्तु के विवक्षित अंश का ग्रहण तथा शेष अंशों का निराकरण न करने वाले प्रतिपादक का अभिप्राय नय कहलाता है। प्रमाण का विषय है अखण्ड वस्तु और नय का विषय है उसका एक अंश। इस दृष्टि से नय न प्रमाण है और न अप्रमाण, किन्तु प्रमाणांश है, जैसे- शरीर का एक अवयव न शरीर है और न अशरीर, किन्तु शरीरांश होता है। न्या. प्र.- वस्तु भवति अनन्तधर्मात्मकम् । तत्र प्रमाणे गृहीतस्य वस्तुनः एकांशं यत् ग्राहयति गृह्णाति वा स प्रतिपत्तुः 1. असौ सदेकान्तोऽपि कथ्यते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002672
Book TitleBhikshunyayakarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages286
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy