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तृतीयो विभागः
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इदानीं प्रतिषेधचतुष्टयस्य स्वीकरणं नितान्तमुपयोगीति निर्दिशन् सूत्रयति
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अन्यथानिर्विकारानन्तसर्वैकात्मकतोपपत्तेः । प्रतिषेधचतुष्टयास्वीकारे भावानां क्रमश: निर्विकारता, अनन्तता, सर्वात्मकता, एकात्मकता च स्यात्। भाववद् अभावोऽपि वस्तुधर्म एव। अन्यथा निर्विकारता, अनन्तता, सर्वात्मकता और एकात्मकता की आपत्ति आती है।
प्रतिषेध-चतुष्टय (चार अभावों) का अस्वीकार कर देने पर पदार्थव्यवस्था में चार दोष उत्पन्न होते हैं।
प्राग्भाव का अस्वीकार करने पर निर्विकारता (नये पर्याय या कार्य का उत्पन्न न होना) उपपन्न होती है।
प्रध्वंस अभाव का अस्वीकार करने पर अनन्तता (कार्य का कभी विनष्ट न होना) उपपन्न होती है।
इतरेतराभाव का अस्वीकार करने पर सर्वात्मकता (सब वस्तुओं में सबके स्वरूप का होना) उपपन्न होती है।
अत्यन्ताभाव का अस्वीकार करने पर एकात्मकता (सब वस्तुओं में एक ही स्वरूप का होना) उपपन्न होती है। भाव की भाँति अभाव भी वस्तु का ही धर्म है। न्या. प्र.- उपर्युक्तस्य प्रतिषेधचतुष्टयस्य यदि स्वीकरणं न
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