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________________ ४६ पर इस समय दीक्षा देनेका तथा दीक्षित व्यक्तियोंके जीवनका जो ढर्रा चल रहा है, उसे उस व्यक्तिकी दृष्टिसे, सामाजिक दृष्टिसे बिलकुल अनुपयोगी ही नहीं घातक सगझता हूँ। ___जो दीक्षा-शुद्धिके पक्षपाती हों, उनका भी इस शर्तपर समर्थन करनेको तैयार हूँ कि पहले तो साधु-संस्था वनवासिनी बने; दूसरे, दिनमें एक बार ही भोजन करे और मात्र एक प्रहर नींद ले, बाकीका समय केवल स्वाध्यायमें बिताए; तीसरे, वह या तो दिगम्बरत्व स्वीकार करे या वस्त्र धारण करे तो भी कमसे कम हाथ-कती मोटी खद्दरके दो या तीन वस्त्र रखें । अाजकल मलमल ही नहीं रेशमी कपड़े पहननेमें जो साधुओंकी और खास कर श्राचार्योंकी प्रतिष्ठा समझी जाती है, इसका त्याग-प्रधान दीक्षाके साथ क्या मेल है, मुझे कोई समझा सके तो मैं उसका अाभार मानूंगा। जब प्राचार्य तक ऐसे आकर्षक कपड़ोंमें धर्मका महत्त्व और धर्मकी प्रभावना समझते हों, तब कच्ची उम्रमें दीक्षाके लिए आनेवाले बालक-बालिकाओंके मानस पर उसका क्या प्रभाव पड़ता होगा ? इसका कोई विचार करता है ? क्या केवल सब मानस-रोगोंका इलाज एक मात्र उपवास ही है। ऊपरकी तीन शर्तोसे भी सबल और मुख्य शर्त तो यह है कि दीक्षित हुअा बाल, तरुण, प्रौढ़ या वृद्ध भिक्षु या भिक्षणी दम्भसे जीवन न बिताए, अर्थात् वह जब तक अपने मनसे आध्यात्मिक साधना चाहे करता रहे। उसके लिये श्राजीवन साधुवेशकी प्रतिज्ञाकी कैद न हो; वह अपनी इच्छासे साधु बना रहे । अगर साधु अवस्थामें संतुष्ट न हो सके तो उस अवस्थाको छोड़ कर जैसा चाहे वैसा आश्रम स्वीकार करे । फिर भी समाज में उसकी अवगणना था अप्रतिष्ठाका भाव न रहना चाहिए । जैसी उसकी योग्यता, वैसा उसको जीवन बितानेमें कोई अड़चन न होनी चाहिए । इतना ही नहीं बल्कि उसको समाजकी अोरसे अाश्वासन मिलना चाहिये जिससे उस पर प्रतिक्रिया न हो । खास कर कोई साध्वी गृहस्थाश्रमकी ओर घूमना चाहे तो उसको इस तरह साथ मिलना चाहिये कि जिससे वह आर्त रौद्र ध्यानसे बच सके । समाजकी शोभा इसीमें है। बात यह है कि बौद्ध परम्परा जैसा शुरूसे ही श्राजीवन महाव्रतकी प्रतिज्ञा न लेनेका सामान्य नियम बनाएँ। जैसे-जैसे दीक्षामें स्थिरता होती जाए, वैसे-वैसे उसकी काल-मर्यादा बढ़ाएँ। आजीवन प्रतिज्ञा लाजमी न होनेसे सब दोषोंकी जड़ हिल जाती है। सेवा-दृष्टिमें साधुअोंका स्थान क्या है ? इस मुद्दे पर हमने ऊपर विचार किया ही नहीं है । इस दृष्टिसे जब विचार करते हैं तब तो अनेक बालकबालिकाओंको अकालमें, अपक्क मानसिक दशामें आजीवन प्रतिज्ञावद्ध कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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