________________
लम्बन या वास नहीं था, जब कि श्राजके जैन गुरू वर्गका मुख नगर तथा शहरोंकी ओर है, अरण्य, वन और उपवनकी ओर तो साधु-साध्वियोंकी पीठ भर है, मुख नहीं। जिन कसबों, नगरों और शहरों में विकारकी पूर्ण सामग्री है उसीमें आज के बालक किशोर, तरुण साधु-साध्वियोंका जीवन व्यतीत होता है । वे जहाँ रहते हैं, जहाँ जाते हैं, वहाँ सर्वत्र ग्यारहवें गुणस्थानतक चढ़े हुए को भी गिरानेवाली सामग्री है । फिर जो साधु-साध्वियाँ छठे गुणस्थानका भी वास्तविक स्पर्श करनेसे दूर हैं, वे वैसी भोग सामग्री में अपना मन श्रविकृत रख सकें और आध्यात्मिक शुद्धि सँभाले रखें तो गृहस्थ अपने गृहस्थाश्रमकी भोग सामग्रीमें ही ऐसी स्थिति क्यों न प्राप्त कर सकें ? क्या वेष मात्रके बदल देनेमें ही या घर छोड़कर उपाश्रयकी शरण लेने मात्र में ही कोई ऐसा चमत्कार है जो श्रध्यात्मिक शुद्धि साध दे और मनको विकृत न होने दे ।
ऊ
बाल-दीव के विरोधका दूसरा सबल कारण यह है कि जैन दीक्षा आजन्म ली जाती है। जो स्त्री-पुरुष साधुत्व धारण करता है, वह फिर इस जीवन में साधु वेष छोड़कर जीवन बिताए तो उसका जीवन न तो प्रतिष्ठित समझा जाता है और न उसे कोई उपयोगी जीवन व्यवसाय ही सरलता से मिलता है। श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी सभी ऐसे व्यक्तियोंको अवगणना या उपेक्षा - की दृष्टिसे देखते हैं । फल यह होता है कि जो नाबालिग लड़का, लड़की उम्र होने पर या तारुण्य पाकर एक या दूसरे कारणसे साधु जीवन में स्थिर नहीं रह सकते, उनको या तो साधुवेष धारण कर प्रछन्न रूपसे मलिन जीवन बिताना पड़ता है या वेष छोड़कर समाज में तिरस्कृत जीवन बिताना पड़ता है । दोनों हालतों में मानवताका नाश है । अधिकतर उदाहरणों में यही देखा जाता है कि त्यागी वेष में ही छिप कर नाना प्रकारकी भोगवासना तृप्तकी जाती है जिससे एक तरफसे ऐसे अस्थिर साधुओं का जीवन बर्बाद होता है, और दूसरी तरफ से उनके संपर्क में आए हुए अन्य स्त्री-पुरुषोंका जीवन बर्बाद हो जाता है । इस देशमें स्त्री-पुरुषोंके अस्वाभाविक शरीर संबन्धके दूषण का जो फैलाव हुआ है, उसमें श्रनधिकार बाल-संन्यास और अपक्व संन्यासका बड़ा हाथ हैं । इस दोष की जिम्मेवारी केवल मुसलमानोंकी नहीं है, केवल अन्य धर्मावलम्बी मठवासियों, बाबा - महंतों की भी नहीं है । इस जिम्मेवारी में जैन परम्पराकी अनधिकार, अकाल, अनवसर दीक्षा का भी खास हाथ है । इन सब कारणों पर विचार करनेसे तथा ऐसी स्थिति के अनुभवसे मेरा सुनिश्चित मत है कि बाल- दीक्षा धर्म और समाज के लिए ही नहीं, मानवताके लिये घातक है । मैं दीक्षाको आवश्यक समझता हूँ । दीक्षित व्यक्तिका बहुमान करता हूँ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org