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________________ लेना और फिर इधर या उधर कहींके न रखना,यह आत्मघातक दोष है। इसके उपरान्त दूसरा भी बड़ा दोष नजर आता है । वह यह कि ऐसी अकर्मण्य दीक्षित फौजको निभानेके वास्ते समाजकी बहुत बड़ी शक्ति बेकार ही खर्च हो जाती है । वह फौज सेवा करनेके बजाय केवल सेवा लेती ही रहती है । इस स्थितिका सुधार खुद अगुवे विचारक साधु-साध्वी एवं गृहस्थ श्रावक न करेंगे तो उनके आध्यात्मिक साम्यवादके स्थानमें लेनिन-स्टालिनका साम्यवाद इतनी त्वरासे आएगा कि फिर उनके किए कुछ न होगा। ___ मैं पहिले कह चुका हूँ कि केवल जैन परम्पराको लेकर बाल-दीक्षाके प्रश्नपर मैं नहीं सोचता। तब इतने विस्तारसे जैन परम्पराकी बाल-दीक्षा संब. न्धी स्थितिपर मैंने विचार क्यों किया और अन्य भारतीय संन्यास प्रधान परम्पराअोंके बारेमें कुछ भी क्यों नहीं कहा ? ऐसा प्रश्न जरूर उठता है । इसका खुलासा यह है कि बौद्ध परम्परामें तो बाल-दीक्षाका दोष इसलिए तीव्र नहीं बनता कि उसमें दीक्षाके समय आजीवन प्रतिज्ञाका अनिवार्य नियम नहीं है । दूसरी बात यह भी है कि अमुक समयतक भिक्षु या भिक्षुणी जीवन बिता कर जो अन्य आश्रमको स्वीकार करता है, उसके लिए अप्रतिष्ठाका भय नहीं है । अब रही वैदिक, शैव, वैष्णव, अवधूत, नानक उदासीन आदि अन्य परम्पराओंकी बात । इन परम्पराओं के अनुयायी सब मिलाकर करोड़ोंकी संख्यामें हैं। उन्हींका भारतमें हिन्दूके नामसे बहुमत है। इससे कोई छोटी उम्रका दीक्षित व्यक्ति उत्पथगामी बनता है या दीक्षा छोड़कर अन्य अाश्रम स्वीकार करता है तो करोड़ोंकी अनुयायी संख्यापर उसका कोई दुष्परिणाम उतना नजर नहीं श्राता जितना छोटेसे जैन समाजपर नजर आता है। इसके सिवाय दो एक बातें और भी हैं। जैन परम्परामें जैसी भिक्षुणी संस्था है वैसी कोई बड़ी या व्यापक संन्यासिनी संस्था उक्त परम्पराओंमें नहीं है । इसलिए बालिका, त्यक्ता या विधवाकी दीक्षाके बाद जो अनर्थ जैन परम्परामें सम्भव है, कमसे कम वैसा अनर्थ उक्त परम्परात्रोंमें पुरुष बाल-दीक्षा होने पर भी होने नहीं पाता । उक्त वैदिक आदि संन्यास प्रधान परम्परात्रोंमें इतने बड़े समाज-सेवक पैदा होते हैं और इतने बड़े उच्च लेखक, विश्वप्रसिद्ध वक्ता और राजपुरुष भी पैदा होते हैं कि जिससे त्यागी संस्थाके सैंकड़ों दोष ढक जाते हैं और सारा हिन्दू समाज जैन समाजकी तरह एक सूत्र में संगठित न होनेसे उन दोषोंको निभा भी लेता है । जैन परम्परामें साधु-साध्वी संघमें यदि रामकृष्ण, रामतीर्थ, विवेकानन्द, महर्षि रमण, श्री अरविन्द, कृष्ण मूर्ति, स्वामी ज्ञानानन्दजी, आदि जैसे साधु और भक्त मोराबाई जैसी एक-आध साध्वी भी होती तो आज बाल-दीक्षाका इतना विरोध नहीं होता! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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