SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 910
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६० जैन धर्म और दर्शन सभी गणवान् सर्वज्ञ हैं--इस उदार और निर्व्याज असाम्प्रदायिक कथन का श्रेय जैन परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र के सिवाय दूसरे किसी के नाम पर नहीं जाता । हरिभद्र की योगदृष्टिगामिनी वह उक्ति भी मात्र उस ग्रन्थ में सुषुप्त रूप से निहित है। उसकी ओर जैन-परम्परा के विद्वान् या चिन्तक न तो ध्यान देते हैं और न सब लोगों के सामने उसका भाव ही प्रकाशित करते हैं। वे जानते हए भी इस डर से अनजान बन जाते हैं कि भगवान् महावीर का स्थान फिर इतना ऊँचा न रहेगा, वे साधारण अन्य योगी जैसे ही हो जायँगे। इस डर और सत्य की ओर आँख मूंदने के कारण सर्वज्ञत्व की चालू मान्यता में कितनी बेशुमार असंगतियाँ पैदा हुई हैं और नया विचारक जगत किस तरह सर्वज्ञत्व के चालू अर्थ से सकारण ऊब गया है, इस बात पर पण्डित या त्यागी विद्वान् विचार ही नहीं करते। वे केवल उन्हीं सर्वज्ञत्व समर्थक दलीलों का निर्जीव और निःसार पुनरावर्तन करते रहते हैं जिनका विचारजगत में अब कोई विशेष मूल्य नहीं रहा है। सर्वज्ञविचार की भूमिकाएँ ऊपर के वर्णन से यह भली भाँति मालूम हो जाता है कि सर्वज्ञत्व विषयक बिचारधारा की मुख्य चार भूमिकाएँ हैं । पहली भूनिका में सूक्त के प्रणेता । ऋषि अपने-अपने स्तुत्य और मान्य देवों की सर्वज्ञत्व के सूचक विशेषणों के द्वारा केवल महत्ता भर गाते हैं, उनकी प्रशंसा भर करते हैं, अर्थात् अपनेअपने इष्टतम देव की असाधारणता दर्शित करते हैं। वहाँ उनका तात्पर्य वह नहीं है जो आगे जाकर उन विशेषणों से निकाला जाता है। दूसरी भूमिका वह है जिसमें ऋषियों और विद्वानों को प्राचीन भाषा समृद्धि के साथ उक्त विशेषणरूप शब्द भी विरासत में मिले हैं, पर वे ऋषि या संत उन विशेषणों का अर्थ अपने ढंग से सूचित करते हैं। जिस ऋषि को पुराने देवों के स्थान में एक मात्र ब्रह्मतत्त्व या श्रात्मतत्व ही प्रतिपाद्य तथा स्तुत्य अँचता है वह ऋषि उस तत्त्व के ज्ञान मात्र में सर्वज्ञत्व देखता है और जो संत आत्मतत्व के बजाय उसके स्थान में हेय और उपादेय रूप से प्राचार मार्ग का प्राधान्य स्थापित करना चाहता है वह उसी आचारमार्गान्तर्गत चतुर्विध आर्य सत्य के दर्शन में ही सर्वज्ञत्व की इतिश्री मानता है और जो संत अहिंसाप्रधान श्राचार पर तथा द्रव्य-पर्दाथ दृष्टिरूप विभज्यवाद के स्वीकार पर अधिक भार देना चाहता है वह उसी के ज्ञान में सर्वशत्व समझता है । तीसरी भूमिका वह है जिसमें दूसरी भूमिका की वास्तविकता और अनुभवगम्यता के स्थान में तर्कमूलक सर्वज्ञत्व के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy