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________________ ૧e सर्वशत्व और उसका अर्थ - करीब ढाई हजार वर्ष की शास्त्रीय जैन-परम्परा में हम एक ही अपवाद पाते हैं जो सर्वशत्व के अर्थ की दूसरी बाजू की ओर संकेत करता है। विक्रम की आठवीं शताब्दी में याकिनीसूनु हरिभद्र नामक आचार्य हुए हैं। उन्होंने अपने अनेक तर्कग्रन्थों में सर्वज्ञत्व का समर्थन उसी अर्थ में किया है जिस अर्थ में अपने पूर्ववर्ती श्वेताम्बर दिगम्बर अनेक विद्वान् करते आये हैं। फिर भी उनकी तार्किक तथा समभावशील सत्यग्राही बुद्धि में वह समर्थन अखरा जान पड़ता है। हरिभद्र जब योग जैसे अध्यात्मिक और सत्यगामी विषय पर लिखने लगे तो उन्हें यह बात बहुत खटकी कि महावीर को तो सर्वज्ञ कहा जाय और सुगत, कपिल आदि जो वैसे ही आध्यात्मिक हुए हैं उन्हें सर्वज्ञ कहा या माना न जाय । यद्यपि वे अपने तर्कप्रधान ग्रन्थों में सुगत, कपिल श्रादि के सर्वज्ञत्व का निषेध कर चुके थे; पर योग के विषय ने उनकी दृष्टि बदल दी और उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय में सुगत, कपिल आदि सभी आध्यात्मिक और सद्गुणी पुरुषों के सर्वशत्व को निर्विवाद रूप से मान लिया और उसका समर्थन भी किया ( का० १०२-१०८)। समर्थन करना इसलिए अनिवार्य हो गया था कि वे एक बार सुगत कपिल आदि के सर्वज्ञत्व का निषेध कर चुके थे. पर अब उन्हें वह तर्कजाल मात्र लगती थी ( का० १४०-१४७)। हरिभद्र का उपजीवन और अनुगमन करनेवाले अंतिम प्रबलतम जैन तार्किक यशोविजयजी ने भी अपनी कुतर्कग्रहनिवृत्ति द्वात्रिंशिका में हरिभद्र की बात का ही निर्भयता से और स्पष्टता से समर्थन किया है। हालांकि यशोविजययी ने भी अन्य अनेक ग्रन्थों में सुगत आदि के सर्वज्ञत्व का आत्यन्तिक खण्डन किया है। हमारे यहाँ भारत में एक यह भी प्रणाली रही है कि प्रबल से प्रबल चिंतक और तार्किक भी पुरानी मान्यताओं का समर्थन करते रहे और नया सत्य प्रकट करने में कभी-कभी हिचकाए भी। यदि हरिभद्र ने वह सत्य योगदृष्टिसमुच्चय में जाहिर किया न होता तो उपाध्याय यशोविजयजी कितने ही बहुत तार्किक विद्वान क्यों न हों पर शायद ही सर्वज्ञत्व के इस मौलिक भाव का समर्थन करते । इसलिए १. धर्मवाद के क्षेत्र में श्रद्धागम्य वस्तु को केवल तर्कबल से स्थापित करने का श्राग्रह ही कुतर्कग्रह है । इसकी चर्चा में उपाध्यायजी ने बत्तीसी में मुख्यतया सर्वज्ञविषयक प्रश्न ही लिया है। और श्रा० हरिभद्र के भाव को समग्र बत्तीसी में इतना विस्तार और वैशद्य के साथ प्रकट किया है कि जिसे पढ़कर तटस्थ चिन्तक के मन में निश्चय होता है कि सर्वज्ञत्व एक मात्र श्रद्धागम्य है, और तर्कगम्य नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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