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* जैन धर्म और दर्शन इस वर्णन में यह स्पष्ट देखते हैं कि इसमें द्रव्य श्रीर पर्याय दोनों का वर्णन है। पर भार अधिक द्रव्य पर है। इसमें कार्य-कारण दोनों का वर्णन है; पर भार तो अधिक मूल कारण-द्रव्य पर ही है। ऐसा होने का सबब यही है कि उपनिषद के ऋषि मुख्यतया श्रात्मस्वरूप के निरूपण में ही दत्तचित्त हैं और दूसरा सब वर्णन उसी के समर्थन में है । यह औपनिषदिक भाव ध्यान में रखकर श्राचारांग के 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' इस वाक्य का अर्थ और प्रकरण संगति सोचें तो स्पष्ट ध्यान में आ जायगा कि आचारांग का उक्त वाक्य द्रव्य पर्यायपरक मात्र है। जैन परम्परा उपनिषदों की तरह एक मात्र ब्रह्म या आत्म द्रव्य के अखण्ड ज्ञान पर भार नहीं देती, वह आत्मा की या द्रव्यमात्र की भिन्नभिन्न पर्याय रूप अवस्थाओं के ज्ञान पर भी उतना ही भार पहले से देती आई है। इसीलिए आचारांग में दूसरा वाक्य ऐसा है कि जो सबको-पर्यायों को जानता है वह एक को--द्रव्य को जानता है। इस अर्थ की जमाली-इन्द्रभूति संवाद से तुलना की जाय तो इसमें सन्देह ही नहीं रहता कि जैन-परम्परा का सर्वज्ञत्व संबंधी दृष्टिकोण मूल में केवल इतना ही था कि द्रव्य और पर्याय उभय को समान भाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है।
बद्ध जब मालुक्य पुत्र नामक अपने शिष्य से कहते हैं कि मैं चार आर्य सत्यों के ज्ञान का ही दावा करता हूँ और दूसरे अगम्य एवं काल्पनिक तत्त्वों के ज्ञान का नहीं, तब वह वास्तविक भूमिका पर है । उसी भूमिका के साथ महावीर के सर्वज्ञत्व की तुलना करने पर भी फलित यही होता है कि अत्युक्ति या अल्पोक्ति नहीं करने वाले संतप्रकृति के महावीर द्रव्यपर्यायवाद की पुरानी निर्ग्रन्थ परम्परा के ज्ञान को ही सर्वज्ञत्वरूप मानते होंगे । जैन और बौद्ध परम्परा में इतना फर्क अवश्य रहा है कि अनेक तार्किक बौद्ध विद्वानों ने बुद्ध को त्रैकालिकज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ स्थापित करने का प्रयत्न किया है तथापि अनेक असाधारण बौद्ध विद्वानों ने उनको सीधे सादे अर्थ में ही सर्वज्ञ घटाया है। जब कि जैन परम्परा में सर्वज्ञ का सीधा सादा अर्थ भुला दिया जाकर उसके स्थान में तर्कसिद्ध अर्थ ही प्रचलित और प्रतिष्ठित हो गया है और उसी अर्थ के संस्कार में पलने वाले जैन तार्किक प्राचार्यों को भी यह सोचना अति मुश्किल हो गया है कि एक समय में सर्व भावों के साक्षात्काररूप सर्वज्ञत्व कैसे असंगत है ? इसलिए वे जिस तरह हो, मामूली गैरमामूली सब युक्तियों से अपना अभिप्रेत सर्वज्ञत्व सिद्ध करने के लिए ही उतारू रहे हैं ।
१. चूलमालुक्य सुत्त ।
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