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________________ सर्वशत्व और उसका अर्थ ५५७.. द्रव्यार्थिक दृष्टि से लोक शाश्वत है और पर्यायार्थिक दृष्टि से अशाश्वत । महावीर के इस उत्तर से सर्वशत्व के जैनाभिप्रेत अर्थ के असली स्तर का पता चल जाता है कि जो द्रव्य-पर्याय उभय दृष्टि से प्रतिपादन करता है वही सर्वज्ञ है। महावीर ने जमाली के सम्मुख एक समय में त्रैकालिक भावों को साक्षात् जाननेवाले रूप से अपने को वर्णित नहीं किया है। जिस रूप में उन्होंने अपने को सर्वज्ञ वर्णित किया वह रूप सारी जैन परम्परा के मूल गत स्रोत से मेल भी खाता है और आचारांग के उपर्युक्त अति पुराने उल्लेखों से भी मेल खाता है। उसमें न तो अत्युक्ति है, न अल्पोक्ति; किंतु वास्तविक स्थिति निरूपित हुई है। इसलिए मेरी राय में जैन परम्परा में माने-जानेवाले सर्वज्ञत्व का असली अर्थ वही होना चाहिए न कि पिछला तर्क से सिद्ध किया जानेवाला-एक समय में सर्व भावों का साक्षात्कार रूप अर्थ । मैं अपने विचार की पुष्टि में कुछ ऐसे भी संवादि प्रमाण का निर्देश करना उचित समझता हूँ जो भगवान् महावीर के पूर्वकालीन एवं समकालीन हैं। हम पुराने उपनिषदों में देखते हैं कि एक ब्रह्मतत्त्व के जान लेने पर अन्य सब अविज्ञात विज्ञात हो जाता है ऐसा स्पष्ट वर्णन है और इसके समर्थन में वहीं दृष्टान्त रूप से मृत्तिका का निर्देश करके बतलाया है कि जैसे एक ही मृत्तिका सत्य है, दूसरे घट-शराव आदि विकार उसी के नामरूप मात्र हैं, वैसे ही एक ही ब्रह्म पारमार्थिक सत्य है बाकी का विश्व प्रपंच उसी का विलासमात्र है (जैन परिभाषा में कहें तो बाकी का सारा जगत ब्रह्म का पर्यायमात्र है।) उसकी परब्रह्म से अलग सत्ता नहीं । उपनिषद् के ऋषि का भार ब्रह्मज्ञान पर है, इसलिए वह ब्रह्म को ही मूल में पारमार्थिक कहकर बाकी के प्रपंच को उससे भिन्न मानने पर जोर नहीं देता । यह मानो हुई सर्वसम्मत बात है कि जो जिस तत्त्व का मुख्यतया ज्ञेय, उपादेय या हेय रूप से प्रतिपादन करना चाहता है वह उसी पर अधिक से अधिक भार देता है। उपनिषदों का प्रतिपाद्य आत्मतत्त्व या परब्रह्म है। इसीलिए उसी के ज्ञान पर भार देते हुए ऋषियों ने कहा कि प्रात्मतत्त्व के जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है। इस स्थल पर मृत्तिका का दृष्टान्त दिया गया है, वह भी इतना ही सूचित करता है कि जुदे-जुदे विकारों और पर्यायों में मृत्तिका अनुगत है, वह विकारों की तरह अस्थायी नहीं, जैसा कि विश्व के प्रपंच में ब्रह्म अस्थायी नहीं। हम उपनिषदगत १. अात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितं. भवति--बृहदारण्यकोपनिषद् २. ४.५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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