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सर्वज्ञत्व और उसका अर्थ
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अर्थ की और उसकी स्थापक युक्तियों की कल्पनासृष्टि विकसित होती है। जिसमें अनुभव और समभाव की अवगणना होकर अपने-अपने मान्य देवों या पुरुषों की महत्ता गाने की धुन में दूसरों की वास्तविक महत्ता का भी तिरस्कार किया जाता है या वह भूला दी जाती है । चौथी भूमिका वह है जिसमें फिरः अनुभव और माध्यस्थ्य का तत्त्व जागरित होकर दूसरी भूमिका की वास्तविकता और बुद्धिगम्यता को अपनाया जाता है। इसमें संदेह नहीं कि यह चौथी भूमिका ही सत्य के निकट है, क्योंकि वह दूसरी भूमिका से तत्वतः मेल खाती है. और मिथ्या कल्पनाओं को तथा साम्प्रदायिकता की होड़ को स्थान नहीं देती। ई० १६४६ ]
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