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________________ ५३४ जैन धर्म और दर्शन मात्र देह की बलि देकर भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचा लेगा; जैसे कोई सच्ची सती दूसरा रास्ता न देखकर देह-नाश के द्वारा भी सतीत्व बचा लेती है । पर उस अवस्था में भी वह व्यक्ति न किसी पर रुष्ट होगा, न किसी तरह भयभीत और न किसी सुविधा पर तुष्ट | उसका ध्यान एकमात्र संयत जीवन को बचा लेने और समभाव की रक्षा में ही रहेगा । जब तक देह और संयम दोनों की समान भाव से रक्षा हो, तबतक दोनों की रक्षा कर्त्तव्य है। पर एक की ही पसंदगी करने का सवाल अावे तब हमारे जैसे देहरक्षा पसंद करेंगे और आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेंगे, जब कि समाधिमरण का अधिकारी उल्टा करेगा। जीवन तो दोनों ही हैं-दैहिक और आध्यात्मिक । जो जिसका अधिकारी होता है, वह कसौटी के समय पर उसी को पसंद करता है । और ऐसे ही आध्यात्मिक जीवन वाले व्यक्ति के लिए प्राणान्त अनशन की इजाजत है; पामरों, भयभीतों या लालचियों के लिए नहीं। अब आप देखेंगे कि प्राणान्त अनशन देह रूप घर का नाश करके भी दिव्य जीवन रूप अपनी आत्मा को गिरने से बचा लेता है । इसलिए वह खरे अर्थ में तात्त्विक दृष्टि से अहिंसक ही है। जो लेखक आत्मघात रूप में ऐसे संथारे का वर्णन करते हैं वे मर्म तक नहीं सोचते; परन्तु यदि किसी अति उच्च उदेश्य से किसी पर रागद्वेष बिना किए संपूर्ण मैत्रीभावपूर्वक निर्भय और प्रसन्न हृदय से बापू जैसा प्राणान्त अनशन करें तो फिर वे ही लेखक उस मरण को सराहेंगे, कभी अात्मघात न कहेंगे, क्योंकि ऐसे व्यक्ति का उद्देश्य और जीवनक्रम उन लेखकों की आँखों के सामने हैं, जब कि जैन परंपरा में संथारा करने वाले चाहे शुभाशयी ही क्यों न हों, पर उनका उद्देश्य और जीवन क्रम इस तरह सुविदित नहीं। परन्तु शास्त्र का विधान तो उसी दृष्टि से है और उसका अहिंसा के साथ पूरा मेल भी है । इस अर्थ में एक उपमा है । यदि कोई व्यक्ति अपना सारा घर जलता देखकर कोशिश से भी उसे जलने से बचा न सके तो वह क्या करेगा ? आखिर में सबको जलता छोड़कर अपने को बचा लेगा। यही स्थिति आध्यात्मिक जीवनेच्छु की रहती है। वह खामख्वाह देह का नाश कभी न करेगा । शास्त्र में उसका निषेध है। प्रत्युत देहरक्षा कर्तव्य मानी गई है पर वह संयम के निमित्त । आखिरी लाचारी में ही निर्दिष्ट शर्तों के साथ देहनाश समाधिमरण है और अहिंसा भी । अन्यथा बालमरण और हिंसा ।। । भयङ्कर दुष्काल आदि तङ्गी में देह-रक्षा के निमित्त संयम से पतन होने का अवसर आवे या अनिवार्य रूपसे मरण लाने वाली बिमारियों के कारण खुद को और दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो और फिर भी संयम या सद्गुण की रक्षा सम्भव न हो तब मात्र संयम और समभाव की दृष्टि से संथारे का विधान है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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