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________________ ५३५ संथारा और अहिंसा जिसमें एक मात्र सूक्ष्म आध्यात्मिक जीवन को ही बचाने का लक्ष्य है। जब बापूजी आदि प्राणान्त अनशन की बात करते हैं और मशरूवाला आदि समर्थन करते हैं तब उसके पीछे यही दृष्टिबिन्दु मुख्य है। यह पत्र तो कब का लिखा है। देरी भेजने में इसलिये हुई है कि राधाकृष्णन के लेखन की जाँच करनी थी। श्री दलसुखभाई ने इस विषय के खास ग्रन्थ 'मरण विभक्ति प्रकीर्णक' आदि देखे जिनमें उस ग्रन्थ का भी समावेश है जिसके आधार पर राधाकृष्णन ने लिखा है। वह ग्रन्थ है, अाचारांग सूत्र का अंग्रेजी भाषान्तर अध्ययन-सात । राधाकृष्णन ने लिखा है सो शब्दशः ठीक है। पर मूलसंदर्भ से छोटा सा टुकड़ा अलग हो जाने के कारण तथा व्यवहार में प्रास्मवध अर्थ में प्रचलित 'स्युसाईड' शब्द का प्रयोग होने के कारण पढ़ने वालों को मूलमंतव्य के बारे में भ्रम हो जाना स्वाभाविक है। बाकी उस विषय का सारा अध्ययन और परस्पर परामर्श कर लेने के बाद हमें मालूम होता है कि यह प्रकरण संलेखना और संथारे से संबन्ध रखता है। इसमें हिंसा की कोई यू तक नहीं है। यह तो उस व्यक्ति के लिए विधान है जो एकमात्र आध्यात्मिक जीवन का उम्मेदवार और तदर्थ की हुई सत्प्रतिज्ञात्रों के पालन में रत हों। इस जीवन के अधिकारी भी अनेक प्रकार के होते रहे हैं। एक तो वह जिसने जिनकल्म स्वीकार किया हो जो अाज विच्छिन्न है। जिनकल्पी मात्र अकेला रहता है और किसी तरह किसी की सेवा नहीं लेता। उसके वास्ते अन्तिम जीवन की घड़ियों में किसी की सेवा लेने का प्रसंग न आवे, इसलिये अनिवार्य होता है कि वह सावध और शक्त अवस्था में ही ध्यान और तपस्या आदि द्वारा ऐसी तैयारी करे कि न मरण से डरना पड़े और न किसी की सेवा लेनी पड़े। वही सब जवाबदेहियों को अदा करने के बाद बारह वर्ष तक अकेला ध्यान तप करके अपने जीवन का उत्सर्ग करता है। पर यह कल्प मात्र जिनकल्पी के लिये ही है । बाकी के विधान जुदे-जुदे अधिकारियों के लिए हैं। सबका सार यह है कि यदि की हुई सत्प्रतिज्ञाओं के भङ्ग का अवसर प्रावे और वह भङ्ग जो सहन कर नहीं सकता उसके लिए प्रतिज्ञाभंग की अपेक्षा प्रतिज्ञापालनपूर्वक मरण लेना ही श्रेय है । आप देखेंगे कि इसमें प्राध्यात्मिक वीरता है। स्थूल जीवन के लोभ से, आध्यात्मिक गुणों से च्युत होकर मृत्यु से भागने की कायरता नहीं है । और न तो स्थूल जीवन की निराशा से ऊबकर मृत्यु मुख में पड़ने की आत्मवध कहलाने वाली वालिशता है। ऐसा व्यक्ति मृत्यु से जितना ही निर्भय, उतना ही उसके लिए तैयार भी रहता है। वह जीवन-प्रिय होता है, जीवन-मोही नहीं । संलेखना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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