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________________ ३४ लिए हैं। जो पहले कन्या-शिक्षा नहीं चाहते थे, वे भी अब कन्याको थोड़ा बहुत पढाते है। यदि थोड़ा-बहुत पढ़ाना जरूरी है तो फिर कन्याकी शक्ति देखकर उसे ज्यादा पढ़ाने में क्या नुकसान है ? जैसे शिक्षण के क्षेत्रमें वैसे ही अन्य मामलोंमें भी नया युग पाया है। गाँवों या पुराने ढंगके शहरों में तो पर्देसे निभ जाता है, पर अब बम्बई, कलकत्ता या दिल्ली जैसे नगरोंमें निवास करना हो और वहाँ बन्द घरोंमें स्त्रियोंको पर्दे में रखनेका आग्रह किया जाए, तो स्त्रियाँ खुद ही पुरुषों के लिए भाररूप बन जाती हैं और सन्तति दिनपर दिन कायर और निर्बल होती जाती है। विशेषकर तरुण जन विधवाके प्रति सहानुभूति रखते हैं, परन्तु जब विवाहका प्रश्न आता है तो लोक- निन्दासे डर जाते हैं। डरकर अनेक बार योग्य विधवाकी उपेक्षा करके किसी अयोग्य कन्याको स्वीकार कर लेते हैं और अपने हाथसे ही अपना संसार बिगाड़ लेते हैं। स्वावलम्बी जीवनका आदर्श न होनेसे तेजस्वी युवक भी अभिभावकोंकी सम्पत्तिके उत्तराधिकारके लोभसे, उनको राजी रखनेके लिए, रूदियोंको स्वीकार कर लेते हैं और उनके चक्रको चालू रखनेमें अपना जीवन गँवा देते हैं । इस तरहकी दुर्बलता रखनेवाले युवक क्या कर सकते हैं ? योग्य शक्ति प्राप्त करनेसे पूर्व ही जो कुटुम्ब-जीवनकी जिम्मेदारी ले लेते हैं, वे अपने साथ अपनी पत्नी और बच्चोंको भी खड्डे में डाल देते हैं । महँगी और तङ्गीके इस जमाने में इस प्रकारका जीवन अन्तमें समाजपर बढ़ता हुअा अनिष्ट भार ही है । पालन-पोषणकी, शिक्षा देनेकी और स्वावलम्बी होकर चलनेकी शक्ति न होनेपर भी जब मूढ़ पुरुष या मूढ़ दम्पति सन्ततिसे घर भर लेते हैं, तब वे नई सन्ततिसे केवल पहले की सन्ततिका नाश नहीं करते बल्कि स्वयं भी ऐसे फंस जाते हैं कि या तो मरते हैं या जीते हुए भी मुदोंके समान जीवन बिताते हैं। खान-पान और पहनावेके विषयमें भी अब पुराना युग बीत गया है । अनेक बीमारियों और अपचके कारणोंमें भोजनकी अवैज्ञानिक पद्धति भी एक है । पुराने जमाने में जब लोग शारीरिक मेहनत बहुत करते थे, तब गाँवोंमें जो पच जाता था, वह अाज शहरोंके 'बैठकिए' जीवनमें पचाया नहीं जा सकता। अन्न और दुष्पच मिठाइयोंका स्थान वनस्पतियोंको कुछ अधिक प्रमाणमें मिलना चाहिए। कपड़ेकी मँहगाई या तंगीकी हम शिकायत करते हैं परन्तु बचे हए समयका उपयोग कातनेमें नहीं कर सकते और निठल्ले रहकर मिलमालिकों या सरकारको गालियाँ देते रहते हैं। कम कपड़ोंसे कैसे निभाव करना. सादे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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