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और मोटे कपड़ों में कैसे शोभित होना, यह हम थोड़ा भी समझ लें तो बहुत कुछ भार हलका हो जाए ।
पुरुष पक्ष में यह कहा जा सकता है कि एक धोतीसे दो पाजामे तो बन ही सकते हैं और स्त्रियों के लिए यह कहा जा सकता है कि बारीक और कीमती कपड़ों का मोह घटाया जाए । साइकिल, ट्राम, बस जैसे वाहनोंकी भाग-दौड़ में, बरसात, तेज हवा या धके समय में और पुराने ढंगके रसोई-घरमें स्टोव आदि सुलगाते समय स्त्रियोंकी पुरानी प्रथाका पहनावा ( लहँगेसाड़ीका ) प्रतिकूल पड़ता है । इसको छोड़कर नवयुगके अनुकूल पंजाबी स्त्रियों जैसा कोई पहनावा ( कमसे कम जब बैठा न रहना हो ) स्वीकार करना चाहिए ।
धार्मिक एवं राजकीय विषयोंमें भी दृष्टि और जीवनको बदले बिना नहीं चल सकता । प्रत्येक समाज अपने पंथका वेश और आचरण धारण करनेवाले हर साधुको यहाँतक पूजता पोषता है कि उससे एक बिलकुल निकम्मा, दूसरोंपर निर्भर रहनेवाला और समाजको अनेक बहमोंमें डाल रखनेवाला विशाल वर्ग तैयार होता है । उसके भारसे समाज स्वयं कुचला जाता है और अपने कन्धे
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' पर बैठनेवाले इस पंडित या गुरुवर्गको भी नीचे गिराता है ।
धार्मिक संस्थामें किसी तरहका फेरफार नहीं हो सकता, इस झूठी धारणा के कारण उसमें लाभदायक सुधार भी नहीं हो सकते । पश्चिमी और पूर्वी पाकि'स्तान से जब हिन्दू भारत में आए, तब वे अपने धर्मप्राण मन्दिरों और मूर्तियों को
इस तरह भूल गए मानो उनसे कोई हालतका धर्म था । रूढ़िगामी श्रद्धालु उसपर निर्भर रहनेवाले इतने विशाल समयका उपयोगी कार्यक्रम क्या है ?
संबन्ध ही न हो । उनका धर्म सुखी समाज इतना भी विचार नहीं करता कि गुरुवर्गका सारी जिन्दगी और सारे
इस देश में साम्प्रदायिक राज्यतंत्र स्थापित है । इस लोकतंत्र में सभीको अपने मत द्वारा भाग लेनेका अधिकार मिला है । इस अधिकारका मूल्य कितना अधिक है, यह कितने लोग जानते हैं ? स्त्रियोंको तो क्या, पुरुषों को भी अपने हकका ठीक-ठीक भान नहीं होता; फिर लोकतंत्र की कमियाँ और शासन की त्रुटियाँ किस तरह दूर हों ?
जो गिने-चुने पैसेवाले हैं अथवा जिनकी श्राय पर्याप्त है, वे मोटर के पीछे जितने पागल हैं, उसका एक अंश भी पशु-पालन या उसके पोषणके पीछे नहीं | सभी जानते हैं कि समाज जीवनका मुख्य स्तंभ दुधारू पशुओं का पालन
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