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________________ 'समन्तभद्र का समय ४७३ श्लोकवार्तिक में चोदना-वेद को ही अंतिम प्रमाण स्थापित किया, और 'प्रमाणभूताय जगद्धितैषिणे' इस मंगल पद्य के द्वारा दिङ्नाग प्रतिपादित बुद्धि प्रामाण्य को खण्डित किया। इसके जवाब में धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक के प्रथम परिच्छेद में बुद्ध का प्रामाण्य अन्ययोगव्यवच्छेद रूप से अपने ढंग से सविस्तर स्थापित किया । जान पड़ता है इसी सरणी का अनुसरण प्रबलप्रज्ञ समन्तभद्र ने भी किया । पूज्यपाद का 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाला सुप्रसन्न पद्य उन्हें मिला फिर तो उनकी प्रतिभा और जग उठी। प्रमाणवार्तिक के सुगत प्रामाण्य के स्थान में समन्तभद्र ने अपनी नई सप्तभंगी सरणी के द्वारा अन्ययोगव्यवच्छेद रूप से ही अर्हत्-जिन को ही प्राप्त-प्रमाण स्थापित किया । यह तो विचारसरणी का साम्य हुा । पर शब्द का सादृश्य भी बड़े मार्के का है। धर्मकीर्ति ने सुगत को 'युक्त्यागमाभ्यां विमृशन्' (प्रमाण वार्तिक १११३५) 'वैफल्याद् वक्ति नानृतम्' (प्र. वा० १११४७ ) कह अविरुद्धभाषी कहा है । समन्तभद्र ने भी 'युक्तिशास्त्राविरोधवाक' ( प्राप्तमी० का०६) कहकर जैन तीर्थंकर को सर्वज्ञ स्थापित किया है। ___धर्मकीर्ति ने चतुरार्यसत्य के उपदेशक रूप से ही बुद्ध को सुगत यथार्थरूप साबित किया है, स्वामी समन्तभद्र ने चतुरार्यसत्य के स्थान में स्याद्वाद न्याय या अनेकान्त के उपदेशक रूप से ही जैन तीर्थंकर को यथार्थ रूप सिद्ध किया है । समन्तभद्र ने स्याद्वाद न्याय की यथार्थता स्थापित करने की दृष्टि से उसके विषय रूप से अनेक दार्शनिक मद्दों को लेकर चर्चा की है, सिद्धसेन ने भी सन्मति के तीसरे काण्ड में अनेकान्त के विषय रूप से अनेक दार्शनिक मद्दों को लेकर चर्चा की है। सिद्धसेन और समन्तभद्र की चर्चा में मुख्य अन्तर यह है कि सिद्धसेन प्रत्येक मुद्दे की चर्चा में जब केवल अनेकान्त दृष्टि की स्थापना करते हैं तब स्वामी समन्तभद्र प्रत्येक मुद्दे पर सयुक्तिक सप्तभंगी प्रणाली के द्वारा अनेकान्त दृष्टि की स्थापना करते हैं। इस तरह धर्मकीर्ति, समन्तभद्र और सिद्धसेन के बीच का साम्य-वैषम्य एक खास अभ्यास की वस्तु है। _स्वामी समन्तभद्र को धर्मकीर्ति-समकालीन या उनसे अनन्तरोत्तरकालीन होने की जो मेरी धारणा हुई है, उसकी पोषक एक और भी दलील विचारार्थ पेश करता हूँ। समन्तभद्र के 'द्रव्यपर्याययोरैक्यम्' तथा 'संज्ञासंख्याविशेषाच्च' (आ० मी० ७१,७२) इन दो पद्यों के प्रत्येक शब्द का खंडन धर्मकीर्ति के टीकाकार अर्चट ने किया है, जिसे पं० महेन्द्रकुमारजी ने नवीं शताब्दी का लिखा है । अर्चट ने हेतुबिन्दु टीका में प्रथम समन्तभद्रोक्त कारिका के अंशों को लेकर गद्य में खण्डन किया है और फिर 'आह च' कहकर खण्डनपरक ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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