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________________ ४७४ जैन,धर्म और दर्शन कारिकाएँ दी हैं । पं० महेन्द्रकुमारजी ने अपनी सुविस्तृत प्रस्तावना में (पृ० २७) यह सम्भावना की है कि अर्चटोद्धृत हेतुबिन्दुटीकागत कारिकाएँ धर्मकीर्ति कृत होंगी। पण्डितजी का अभिप्राय यह है कि धर्मकीर्ति ने ही अपने किसी ग्रन्थ में समन्तभद्र की कारिकाश्रीं का खण्डन पद्य में किया होगा जिसका अवतरण धर्मकीर्ति का टीकाकार अर्चट कर रहा है। पर इस विषय में निर्णायक प्रकाश डालनेवाला एक और ग्रंथ प्राप्त हुआ है जो अर्चटीय हेतुबिन्दु टीका की अनुटीका है। इस अनुटीका का प्रणेता है दुर्वेक मिश्र, जो ११ वीं शताब्दी के आसपास का ब्राह्मण विद्वान् है । दुर्वेक मिश्र बौद्ध शास्त्रों का खासकर धर्मकीर्ति के ग्रंथों का, तथा उसके टीकाकारों का गहरा अभ्यासी था। उसने अनेक बौद्ध ग्रंथों पर व्याख्याएँ लिखी हैं। जान पड़ता है कि वह उस समय किसी विद्या संपन्न बौद्ध विहार में अध्यापक रहा होगा। वह बौद्ध शास्त्रों के बारे में बहुत मार्मिकता से और प्रमाण रूप से लिखनेवाला है। उसकी उक्त अनुटीका नेपाल के ग्रंथ संग्रह में से कॉपी होकर भिक्षु राहुल जी के द्वारा मुझे मिली है। उसमें दुर्वेक मिश्र ने स्पष्ट रूप से उक्त ४५ कारिकाओं के बारे में लिखा है कि-ये कारिकाएँ अर्चट की हैं। अब विचारना यह है कि समन्तभद्र की उक्त दो कारिकाओं का शब्दशः खण्डन धर्मकीर्ति के टीकाकार अचट ने किया है न कि धर्मकीर्ति ने । अगर धर्मकीर्ति के सामने समन्तभद्र की कोई कृति होती तो उसकी उसके द्वारा समालोचना होने की विशेष संभावना थी। पर ऐसा हुआ जान पड़ता है कि जब समन्तभद्र ने प्रमाणवार्तिक में स्थापित सुगतप्रामाण्य के विरुद्ध प्राप्तमीमांसा में जैन तीर्थंकर का प्रामाण्य स्थापित किया और बौद्धमत का जोरों से निरास किया, तब इसका जवाब धर्मकीर्ति के शिष्यों ने देना शुरू किया । कर्णगोमी ने भी, जो धर्मकीर्ति का टीकाकार है, समन्तभद्र की कारिका लेकर जैन मत का खण्डन किया है । ठीक इसी तरह अर्चट ने भी समन्तभद्र की उक्त दो कारिकाओं का सविस्तर खण्डन किया है। ऐसी अवस्था में मैं अभी तो इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि कम से कम समन्तभद्र धर्मकीर्ति के समकालीन तो हो ही नहीं सकते। ऐसी हालत में विद्यानन्द की प्राप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्रीवाली उक्तियों की ऐतिहासिकता में किसी भी प्रकार के सन्देह का अवकाश ही नहीं है । पंडितजी ने प्रस्तावना ( पृ० ३७ ) में तत्त्वार्थभाष्य के उमास्वाति प्रणीत होने के बारे में भी अन्यदीय सन्देह का उल्लेख किया है। मैं समझता हूँ कि संदेह का कोई भी आधार नहीं है । ऐतिहासिक सत्य की गवेषणा में सांप्रदायिक संस्कार के वश होकर अगर संदेह प्रकट करना हो तो शायद निर्णय किसी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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