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________________ ४७२ जैन धर्म और दर्शन अन्य सज्जनों से मेरा इतना ही कहना है कि मेरी यह दलील विद्यानन्द के स्पष्ट उल्लेख के आधार पर किये गए निर्णय की पोषक है और उसे मैंने वहाँ स्वतंत्र प्रमाण रूप से पेश नहीं किया है। यद्यपि मेरे मन में तो वह दलील एक स्वतंत्र प्रमाण रूप से भी रही है । पर मैंने उसका उपयोग उस तरह से वहाँ नहीं किया । जो जैन-परम्परा में संस्कृत भाषा के प्रवेश, तर्कशास्त्र के अध्ययन और पूर्ववर्ती प्राचार्यों की छोटी-सी भी महत्त्वपूर्ण कृति का उत्तरवर्ती प्राचार्यों के द्वारा उपयोग किया जाना इत्यादि जैन मानस को जो जानता है उसे तो कभी संदेह हो ही नहीं सकता कि पूज्यपाद, दिङ्नाग के पद्य को तो निर्दिष्ट करें पर अपने पूर्ववर्ती या समकालीन समन्तभद्र की असाधारण कृतियों का किसी अंश में स्पर्श भी न करें । क्या वजह है कि उमास्वाति के भाष्य की तरह सर्वार्थसिद्धि में भी सप्तभंगी का विशद निरूपण न हो ? जो कि समन्तभद्र की जैन परम्परा को उस समय की नई देन रही। अस्तु । इसके सिवाय मैं और भी कुछ बातें विचारार्थ उपस्थित करता हूँ जो मुझे स्वामी समन्तभद्र को धर्मकीर्ति के समकालीन मानने की ओर झुकाती हैं मुद्दे की बात यह है कि अभी तक ऐसा कोई जैन आचार्य या उसका ग्रंथ नहीं देखा गया जिसका अनुकरण ब्राह्मणों या बौद्धों ने किया हो। इसके विपरीत १३०० वर्ष का तो जैन संस्कृत एवं तर्क वाङ्मय का ऐसा इतिहास है जिसमें ब्राह्मण एवं बौद्ध परम्परा की कृतियों का प्रतिबिम्ब ही नहीं, कभी-कभी तो अक्षरशः अनुकरण है। ऐसी सामान्य व्याप्ति बाँधने के जो कारण हैं उनकी चर्चा यहाँ अप्रस्तुत है । पर अगर सामान्य व्याप्ति की यह धारणा भ्रान्त नहीं है तो धर्मकीर्ति तथा समन्तभद्र के बीच जो कुछ महत्त्व का साम्य है उस पर ऐतिहासिकों को विचार करना ही पड़ेगा । न्यायावतार में धर्मकीर्ति के द्वारा प्रयुक्त एक मात्र अभ्रान्त पद के बल पर सूक्ष्मदर्शी प्रो० याकोबी ने सिद्धसेन दिवाकर के समय के बारे में सूचन किया था, उस पर विचार करनेवाले हम लोगों को समन्तभद्र की कृति में पाये जानेवाले धर्मकीर्ति के साम्य पर भी विचार करना ही होगा । पहली बात तो यह है कि दिङ्नाग के प्रमाण-समुच्चयगत मंगल श्लोक के ऊपर ही उसके व्याख्यान रूप से धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक का पहला परिच्छेद रचा है। जिसमें धर्मकीर्ति ने प्रमाण रूप से सुगत को ही स्थापित किया है। ठीक उसी तरह से समन्तभद्र ने भी पूज्यपाद के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाले मंगल पद्य को लेकर उसके ऊपर प्राप्तमीमांसा रची है और उसके द्वारा जैन तीर्थंकर को ही आस-प्रमाण स्थापित किया है। असल बात यह है कि कुमारिल ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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