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समन्तभद्र का समय
४७१ है, क्योंकि समन्तभद्र की कृति के ऊपर सर्वप्रथम अकलंक की व्याख्या है।" इत्यादि । आगे के कथन से जब यहाँ निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि समन्तभद्र पूज्यपाद के बाद कभी हुए हैं । और यह तो सिद्ध ही है कि समन्तभद्र को कृति के ऊपर सर्वप्रथम अकलंक की व्याख्या है, तब इतना मानना होगा कि अगर समन्तभद्र और अकलंक में साक्षात् गुरु शिष्य का भाव न भी रहा हो तब भी उनके बीच में समय का कोई विशेष अन्तर नहीं हो सकता। इस दृष्टि से समन्तभद्र का अस्तित्व विक्रम की सातवीं शताब्दी का अमुक भाग हो सकता है। __मैंने अकलंकग्रन्थत्रय के ही प्राक्कथन में विद्यानंद की प्राप्तपरीक्षा एवं अष्टसहस्री के स्पष्ट उल्लेखों के आधार पर यह निःशंक रूप से बतलाया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपाद के प्राप्तस्तोत्र के मीमांसाकार हैं अतएव उनके उत्तरवर्ती ही हैं। मेरा यह विचार तो बहुत दिनों के पहिले स्थिर हुआ था, पर प्रसंग आने पर उसे संक्षेप में अकलंकग्रन्थत्रय के प्राक्कथन में निविष्ट किया था। पं० महेन्द्रकुमारजी ने मेरे संक्षिप्त लेख का विशद और सबल भाष्य करके प्रस्तुत भाग की प्रस्तावना (पृ० २५ ) में यह अभ्रान्तरूप से स्थिर किया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपाद के उत्तरवर्ती हैं। अलबत्ता उन्होंने मेरी सप्तभंगी वाली दलील को निर्णायक न मानकर विचारणीय कहा है। पर इस विषय में पंडितजी तथा
१. 'श्रीमत्तत्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेः' वाला जो श्लोक आप्तपरीक्षा में है उसमें 'इद्धरत्नोद्भवस्य' ऐसा सामासिक पद है। श्लोक का अर्थ या अनुवाद करते समय उस सामासिक पद को 'अम्बुनिधि' का समानाधिकरण विशेषण मानकर विचार करना चाहिए। चाहे उसमें समास 'इद्धरत्नों का उद्भव-प्रभवस्थान' ऐसा तत्पुरुष किया जाय, चाहे 'इद्धरत्नों का उद्भव-उत्पत्ति हुआ है जिसमें से' ऐसा बहुव्रीहि किया जाए। उभय दशा में वह अम्बुनिधि का समानाधिकरण. विशेषण ही है । ऐसा करने से 'प्रोत्थानारम्भकाले' यह पद ठीक अम्बुनिधि के साथ अपुनरुक्त रूप से संबद्ध हो जाता है । और फलितार्थे यह निकलता है कि तत्त्वार्थशास्त्ररूप समुद्र की प्रोत्थान-भूमिका बाँधते समय जो स्तोत्र किया गया है। इस वाक्यार्थ में ध्यान देने की मुख्य वस्तु यह है कि तत्त्वार्थ का प्रोत्थान बाँधने पाला अर्थात् उसकी उत्पत्ति का निमित्त बतलानेवाला और स्तोत्र का रचयिता ये दोनों एक हैं । जिसने तत्त्वार्थशास्त्र की उत्पत्ति का निमित्त बतलाया उसी ने उस निमित्त को बतलाने के पहिले 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' यह स्तोत्र भी रचा । इस विचार के प्रकाश में सर्वार्थसिद्धि की भूमिका जो पढ़ेगा उसे यह सन्देह ही नहीं हो सकता कि 'वह स्तोत्र खुद पूज्यपाद का है या नहीं।'
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