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'न्यायकुमुदचन्द्र' का प्राक्कथन
यदि श्रीमान् प्रेमीजी का अनुरोध न होता जिन्हें कि मैं अपने इने-गिने दिगम्बर मित्रों में सबसे अधिक उदार विचारवाले, साम्प्रदायिक होते हुए भी साम्प्रदायिक दृष्टिवाले तथा सच्ची लगन से दिगम्बरीय साहित्य का उत्कर्ष चाहने वाले समझता हूँ, और यदि न्याय कुमुदचन्द्र के प्रकाशन के साथ थोड़ा भी मेरा संबन्ध न होता, तो मैं इस वक्त शायद ही कुछ लिखता ।
दिगम्बर- परंपरा के साथ मेरा तीस वर्ष पहले अध्ययन के समय से ही संबन्ध शुरू हुआ, जो बाह्याभ्यन्तर दोनों दृष्टि से उत्तरोत्तर विस्तृत एवं घनिष्ठ होता गया है । इतने लम्बे परिचय में साहित्यिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से दिगम्बर परम्परा के संबन्ध में आदर एवं अति तटस्थता के साथ जहाँ तक हो सका मैंने कुछ अवलोकन एवं चिंतन किया है । मुझको दिगम्बरीय परम्परा की मध्यकालीन तथा उत्तरकालीन साहित्यिक प्रवृत्ति में एक विरोध नज़र आया । नमस्करणीय स्वामी समंतभद्र से लेकर वादिराज तक की साहित्यिक प्रवृत्ति देखिए और इसके बाद की साहित्यिक प्रवृत्ति देखिए । दोनों का मिलान करने से अनेक बिचार आते हैं । समंतभद्र, अकलङ्क आदि विद्वद्रूप आचार्य चाहे बनवासी रहे हों, या नगरवासी फिर भी उन सबों के साहित्य को देखकर एक बात निर्विवाद रूप से माननी पड़ती है कि उन सत्रों की साहित्यिक मनोवृत्ति बहुत ही उदार एवं संग्रहिणी रही । ऐसा न होता तो वे बौद्ध और ब्राह्मण परम्परा की सब दार्शनिक शाखाओं के सुलभ दुर्लभ साहित्य का न तो अध्ययन ही करते और न उसके तत्त्वों पर अनुकूल-प्रतिकूल समालोचना योग्य गम्भीर चिन्तन करके अपना साहित्य समृद्धतर बना पाते। यह कल्पना करना निराधार नहीं कि उन समर्थ श्राचार्यों ने अपने त्याग व दिगम्बरत्व को कायम रखने की चेष्टा करते हुए भी अपने आस-पास ऐसे पुस्तक सं ह किये कराये कि जिनमें अपने सम्प्रदाय के समग्र साहित्य के अलावा बौद्ध और ब्राह्मण परम्परा के महत्त्वपूर्ण छोटे-बड़े सभी ग्रंथों का संचय करने का भरसक प्रयत्न हुआ । वे ऐसे संचय मात्र से ही संतुष्ट नहीं रहते थे, पर उनके अध्ययन-अध्यापन कार्य को अपना जीवन क्रम बनाये हुए थे । इसके
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