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जैन धर्म और दर्शन
बिना उनके उपलभ्य ग्रंथों में देखा जानेवाला विचार-वैशद्य व दार्शनिक पृथक्करण संभव नहीं हो सकता। वे उस विशालराशि तत्कालीन भारतीय साहित्य के चिंतन, मनन रूप दोहन में से नवनीत जैसी अपनी कृतियों को बिना बनाये भी संतुष्ट न होते थे। यह स्थिति मध्यकाल की रही। इसके बाद के समय में हम दूसरी ही मनोवृत्ति पाते हैं। करीब बारहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक के दिगम्बरीय साहित्य की प्रवृत्ति देखने से जान पड़ता है कि इस युग में वह मनोवृत्ति बदल गई। अगर ऐसा न होता तो कोई कारण न था कि बारहवीं शताब्दी से लेकर अब तक जहाँ न्याय वेदान्त मीमांसा, अलंकार, व्याकरण आदि विषयक साहित्य का भारतवर्ष में इतना अधिक, इतना व्यापक और इतना सूक्ष्म विचार व विकास हुआ, वहाँ दिगम्बर परम्परा इससे बिलकुल अछूती सी रहती। श्रीहर्ष, गंगेश, पक्षधर, मधुसूदन, अप्पदीक्षित, जगन्नाथ आदि जैसे नवयुग प्रस्थापक ब्राह्मण विद्वानों के साहित्य से भरे हुए इस युग में दिगम्बर साहित्य का इससे बिलकुल अछूता रहना अपने पूर्वाचार्यो की मनोवृत्ति के विरुद्ध मनोवृत्ति का सबूत है। अगर वादिराज के बाद भी दिगम्बर परम्परा की साहित्यिक मनोवृत्ति पूर्ववत् रहती तो उसका साहित्य कुछ और ही होता। कारण कुछ भी हो पर इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि पिछले पण्डितों और भट्टारकों की मनोवृत्ति ही बदल गई और उसका प्रभाव सारी परम्परा पर पड़ा जो अब-तक स्पष्ट देखा जाता है और जिसके चिह्न उपलभ्य प्रायः सभी भण्डारों, वर्तमान पाठशालाओं की अध्ययन-अध्यापन प्रणाली और पण्डित मण्डली की विचार व कार्यशैली में देखे जाते हैं। ___ अभी तक मेरे देखने सुनने में ऐसा एक भी पुराना दिगंबर भण्डार या आधुनिक पुस्तकालय नहीं आया जिसमें बौद्ध, ब्राह्मण और श्वेतांबर परम्परा का समग्र साहित्य या अधिक महत्त्व का मुख्य साहित्य संग्रहीत हो। मैंने दिगंबर परम्परा की एक भी ऐसी संस्था नहीं देखी या सुनी कि जिसमें समग्र दर्शनों का
आमूल अध्ययन-चिंतन होता हो या उसके प्रकाशित किये हुए बहुमूल्य प्राचीन ग्रंथों का संस्करण या अनुवाद ऐसा कोई नहीं देखा जिससे यह विदित हो कि उसके सम्पादकों या अनुवादकों ने उतनी विशालता व तटस्थता से उन मल ग्रन्थों के लेखकों की भाँति नहीं तो उनका शतांश या सहस्रांश भी श्रम किया हो ।
एक तरफ से परंपरा में पाई जाने वाली उदात्त शास्त्र भक्ति, आर्थिक सहलियत और बुद्धिशाली पंडितों की बड़ी तादाद के साथ जब अाधुनिक युग के सभीते का विचार करता हूँ, तथा दूसरी भारतवर्षीय परंपराओं की साहित्यिक
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