SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 799
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ केवल ज्ञान- दर्शनोपयोग ४४६. वादों के पुरस्कर्ता रूप से किसी आचार्य विशेष का नाम निर्दिष्ट नहीं है ? | कम से कम कोट्याचार्य के सामने तो विशेषावश्यक भाष्य की जिनभद्रीय स्वोपज्ञ: व्याख्या मौजूद थी ही। इससे यह कहा जा सकता है कि उसमें भी तीनों वादों के पुरस्कर्ता रूप से किसी विशेष आचार्य का नाम रहा न होगा; अन्यथा कोट्याचार्य उस जिनभद्रीय स्वोपज्ञ व्याख्या में से विशेष नाम अपनी विशेषावश्यक भाष्यवृत्ति में जरूर लेते। इस तरह हम देखते हैं कि जिनभद्र की एकमात्र विशेषणवती गत गाथाओं की व्याख्या करते समय सबसे पहले श्राचार्य हरिभद्र ही तीनों वादों के पुरस्कर्ताओं का विशेष नामोल्लेख करते हैं । दूसरी तरफ से हमारे सामने प्रस्तुत तीनों वादों की चर्चावाला दूसरा ग्रन्थ 'सम्मतितर्क' है जो निर्विवाद सिद्धसेन दिवाकर की कृति है । उसमें दिवाकर श्री क्रमवाद का पूर्वपक्ष रूप से उल्लेख करते सयय 'केचित् ' इतना ही कहा है । किसी विशेष नाम का निर्देश नहीं किया है । युगपत् और अभेदवाद को रखते समय तो उन्होंने 'केचित् ' ' श्रन्ये' जैसे शब्द का प्रयोग भी नहीं किया है । पर हम जब विक्रमी ग्यारहवीं सदी के प्राचार्य अभयदेव की 'सन्मतिटीका' को देखते हैं तब तीनों वादों के पुरस्कर्ताओं के नाम उसमें स्पष्ट पाते हैं [पृ० ६०८ ] । अभयदेव हरिभद्र की तरह क्रमवाद का पुरस्कर्ता तो जिनभद्र क्षमाश्रमण को ही बतलाते हैं पर आगे उनका कथन हरिभद्र के कथन से जुदा पड़ता है । हरिभद्र जब युगपवाद के पुरस्कर्ता रूप से आचार्य सिद्धसेन का नाम सूचित करते हैं. तब अभयदेव उसके पुरस्कर्ता रूप से आचार्य मल्लवादी का नाम सूचित करते हैं । हरिभद्र जब अभेद वाद के पुरस्कर्ता रूप से वृद्धाचार्य का नाम सूचित करते हैं तब भयदेव उसके पुरस्कर्ता रूप से प्राचार्य सिद्धसेन का नाम सूचित करते हैं । इस तरह दोनों के कथन में जो भेद या विरोध है उस पर विचार करना आवश्यक है । ऊपर के वर्णन से यह तो पाठकगण भली भाँति जान सके होंगे कि हरिभद्र तथा अभयदेव के कथन में क्रमवाद के पुरस्कर्ता के नाम के संबन्ध में कोई मतभेद नहीं। उनका मतभेद युगपद् वाद और भेद वाद के पुरस्कर्ताओं के १ मलधारी ने अभेद पक्ष का समर्थक ' एवं कल्पितभेदमप्रतिहतम्' इत्यादि पद्य स्तुतिकार के नामसे उद्धृत किया है और कहा है कि वैसा मानना युक्तियुक्त नहीं है । इससे इतना तो स्पष्ट है कि मलधारी ने स्तुतिकार को भेदवादी माना है । देखो, विशेषा० गा० ३०६१ की टीका । उसी पद्य को कोट्याचार्य ने 'उक्त च' कह करके उद्धृत किया है - पृ० ८७७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy