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जैन धर्म और दर्शन
उनकी स्वोपज्ञ व्याख्या नहीं है इससे हम यह नहीं कह सकते हैं कि जिनभद्र को 'केचित्' और 'अन्ये' शब्द से उस-उस वाद के पुरस्कर्ता रूप से कौन-कौन प्राचार्य अभिप्रेत थे । यद्यपि विशेषणवती की स्वोपज्ञ व्याख्या नहीं है फिर भी उसमें पाई जानेवाली प्रस्तुत तीन वाद संबंधी कुछ गाथाओं की व्याख्या सबसे पहले हमें विक्रमीय आठवीं सदी के आचार्य जिनदास गणि की 'नन्दीचर्णि' में मिलती है। उसमें भी हम देखते हैं कि जिनदास गणि 'केचित्' और 'अन्ये' शब्द से किसी प्राचार्य विशेष का नाम सूचित नहीं करते। वे सिर्फ इतना ही कहते हैं कि केवलज्ञान और केवलदर्शन उपयोग के बारे में आचार्यों की विप्रतिपत्तियाँ हैं। जिनदास गणि के थोड़े ही समय बाद प्राचार्य हरिभद्र ने उसी नन्दी चूर्णि के आधार से 'नन्दीवृत्ति' लिखी है। उन्होंने भी अपनी इस नन्दी वृत्ति में विशेषणवतीगत प्रस्तुत चर्चावाली कुछ गाथाओं को लेकर उनकी व्याख्या की है। जिनदास गणि ने जब 'केचित्' 'अन्ये' शब्द से किसी विशेष प्राचार्य का नाम सूचित नहीं किया तब हरिभद्रसरि ने' विशेषणवती की उन्हीं गाथाओं में पाए जानेवाले 'केचित्' 'अन्ये' शब्द से विशेष-विशेष प्राचार्यों का नाम भी सूचित किया है । उन्होंने प्रथम 'केचित्' शब्द से युगपद्वाद के पुरस्कर्ता रूप से प्राचार्य सिद्धसेन का नाम सूचित किया है। इसके बाद 'अन्ये' शब्द से जिनभद्र क्षमाश्रमण को क्रमवाद के पुरस्कर्ता रूप से सचित किया है और दसरे 'अन्ये' शब्द से वृद्धाचार्य को अभेदवाद का पुरस्कर्ता बतलाया है। हरिभद्रसरि के बाद बारहवीं सदी के मलयगिरिसूरि ने भी नन्दीसूत्र के ऊपर टीका लिखी है । उस ( पृ० १३४ ) में उन्होंने वादों के पुरस्कर्ता के नाम के बारे में हरिभद्रसूरि के कथन का ही अनुसरण किया है। यहाँ स्मरण रखने की बात यह है कि विशेषावश्यक की उपलब्ध दोनों टीकाओं में - जिनमें से पहली आठवी-नवीं सदी के कोट्याचार्य की है और दूसरी बारहवीं सदी के मलधारी हेमन्द्र की है-तीनों
१ "केचन' सिद्ध सेनाचार्यादयः 'भणंति'। किं १ । 'युगपद्' एकस्मिन् काले जानाति पश्यति च । कः ? । केवली, न त्वन्यः। 'नियमात्' नियमेन ॥ 'अन्ये' जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः। 'एकान्तरितम्' जानाति पश्यति च इत्येवं 'इच्छन्ति' । 'श्रुतोपदेशेन' यथाश्रुतागमानुसारेण इत्यर्थः । 'अन्ये' तु वृद्धाचार्याः 'न चैव विष्वक् पृथक् तद् 'दर्शनमिच्छन्ति'। 'जिनवरेन्द्रस्य' केवलिन इत्यर्थः । किं तर्हि १ । 'यदेव केवलज्ञानं तदेव' 'से' तस्य केवलिनो 'दर्शन' . ब्रवते ॥"-जन्दीवृत्ति हारिभद्री, पृ० ५२ ।
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