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केवल ज्ञान और दर्शन
४४७ [१०२ ] उपाध्यायजी ने जो तीन विप्रतिपत्तियाँ दिखाई हैं उनका ऐतिहासिक विकास हम ऊपर दिखा चुके । अब उक्त विप्रतिपत्तियों के पुरस्कर्ता रूप से उपाध्यायजी के द्वारा प्रस्तुत किए गये तीन प्राचार्यों के बारे में कुछ विचार करना जरूरी है। उपाध्यायजी ने क्रम पक्ष के पुरस्कर्तारूप से जिनभद्र क्षमाश्रमण को, युगपत् पक्ष के पुरस्कर्तारूप से मल्लवादी को और अभेद पक्ष के पुरस्कर्तारूप से सिद्धसेन दिवाकर को निर्दिष्ट किया है। साथ ही उन्होंने मलयगिरि के कथन के साथ आनेवाली असंगति का तार्किक दृष्टि से परिहार भी किया है। असंगति यों आती है कि जब उपाध्यायजी सिद्धसेन दिवाकर को अभेद पक्ष का पुरस्कर्ता बतलाते हैं तब श्रीमलयागिरि सिद्धसेन दिवाकर को युगपत् पक्ष का पुरूकर्ता बतलाते हैं । उपाध्यायजी ने असंगति का परिहार यह कहकर किया है कि श्री मलयगिरि का कथन अभ्युपगम वाद की दृष्टि से है अर्थात् सिद्धसेन दिवाकर वस्ततः अभेद पक्ष के पुरस्कर्ता हैं पर थोड़ी देर के लिए क्रम पक्ष का खण्डन करने के लिए शुरू में युगपत् पक्ष का आश्रय कर लेते हैं और फिर अन्त में अपना अभेद पक्ष स्थापित करते हैं । उपाध्यायजी ने असंगति
का परिहार किसी भी तरह क्यों न किया हो परंतु हमें तो यहाँ तीनों 'विप्रतिपत्तियों के पक्षकारों को दसानेवाले सभी उल्लेखों पर ऐतिहासिक दृष्टि
से विचार करना है। ___ हम यह ऊपर बतला चुके हैं कि क्रम, युगपत् और अभेद इन तीनों वादों की चर्चावाले सबसे पुराने दो ग्रन्थ इस समय हमारे सामने हैं । ये दोनों जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की ही कृति हैं। उनमें से, विशेषावश्यक भाष्य में तो चर्चा करते समय जिनभद्र ने पक्षकाररूप से न तो किसी का विशेष नाम दिया है
और न 'केचित्' 'अन्ये' आदि जैसे शब्द ही निर्दिष्ट किये हैं। परंतु विशेषणवती में तीनों वादों की चर्चा शुरू करने के पहले जिनभद्र ने 'केचित्' शब्द से युगपत् पक्ष प्रथम रखा है, इसके बाद 'अन्ये' कहकर क्रम पक्ष रखा है और अंत में 'अन्ये' कहकर अभेद पक्ष का निर्देश किया है। विशेषणवती की
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१ देखो, नंदी टीका पृ० १३४ । २ 'केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली नियमा।
अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुअोवएसेणं ।। १८४ ॥ अरणे ण व वीसुं दसणमिच्छंति जिप्रवरिंदस्स । जं चिय केवलणाणं तं चिय से दरिसणं बिति ॥ १८॥'
-विशेषणवती।
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