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________________ ४५० जैन धर्म और दर्शन नाम के संबन्ध में है । अब प्रश्न यह है कि हरिभद्र और अभयदेव दोनों के जहाँ तक हम जान पुरस्कर्ता संबन्धी नामसूचक कथन का क्या आधार है ? सके हैं वहाँ तक कह सकते हैं कि उक्त दोनों सूरि के सामने क्रमवाद का समर्थक और युगपत् तथा अभेद वाद का प्रतिपादक साहित्य एकमात्र जिनभद्र का ही था, जिससे वे दोनों आचार्य इस बात में एकमत हुए कि क्रमवाद श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण का है । परंतु श्राचार्य हरिभद्र का उल्लेख गर सब अंशों में अभ्रान्त है तो यह मानना पड़ता है कि उनके सामने युगपद्वाद का समर्थक कोई स्वतंत्र ग्रन्थ रहा होगा जो सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न किसी अन्य सिद्धसेन का बनाया होगा । तथा उनके सामने अभेदवाद का समर्थक ऐसा भी कोई ग्रन्थ रहा होगा जो सन्मतितर्क से भिन्न होगा और जो वृद्धाचार्य - रचित माना जाता होगा । अगर ऐसे कोई ग्रंथ उनके सामने न भी रहे हों तथापि कम से कम उन्हें ऐसी कोई सांप्रदायिक जनश्रुति या कोई ऐसा उल्लेख मिला होगा जिसमें कि श्राचार्य सिद्धसेन को युगपवाद का तथा वृद्धाचार्य को अभेदवाद का पुरस्कर्ता माना गया हो । जो कुछ हो पर हम सहसा यह नहीं कह सकते कि हरिभद्र जैसा बहुश्रुत प्राचार्य यों ही कुछ आधार के सिवाय युगपवाद तथा भेदवाद के पुरस्कर्ताओं के विशेष नाम का उल्लेख कर दें । समान नामवाले अनेक आचार्य होते आए हैं । इसलिए संभव नहीं कि सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न कोई दूसरे भी सिद्धसेन हुए हों जो कि युगपवाद के समर्थक हुए हों या माने जाते हों । यद्यपि सन्मतितर्क में सिद्धसेन दिवाकर ने भेद पक्ष का ही स्थापन किया है अतएव इस विषय में सन्मतितर्क के आधार पर हम कह सकते हैं कि अभयदेव सूरि का अभेदवाद के पुरस्कर्ता रूप से सिद्धसेन दिवाकर के नाम का कथन बिलकुल सही है और हरिभद्र का कथन विचारणीय है । पर हम ऊपर कह आए हैं कि क्रम आदि तीनों वादों की चर्चा बहुत पहले से शुरू हुई और शताब्दियों तक चली तथा उसमें अनेक श्राचार्यों ने एक-एक पक्ष लेकर समय-समय पर भाग लिया । जब ऐसी स्थिति है तब यह भी कल्पना की जा सकती है कि सिद्धसेन दिवाकर के पहले वृद्धाचार्य नाम के आचार्य भी भेद वाद के समर्थक हुए होंगे या परंपरा में माने जाते होंगे। सिद्धसेन दिवाकर के गुरूरूप से वृद्धवादी का उल्लेख भी कथानकों में पाया जाता है । आश्चर्य नहीं कि वृद्धाचार्य ही वृद्धवादी हों और गुरु वृद्धवादी के द्वारा समर्थित अभेद वाद का दिवाकर ने किया हो । ही विशेष स्पष्टीकरण तथा समर्थन शिष्य सिद्धसेन सिद्धसेन दिवाकर के पहले भी भेद वाद के समर्थक यह बात तो सिद्धसेन ने किसी अभेद वाद के समर्थक Jain Education International निःसंदेह रूप से हुए हैं एकदेशीय मत [ सन्मति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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