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________________ केवल ज्ञान और दर्शन ४४३ बतलाया होगा । अगर हमारा यह अनुमान ठीक है तो ऐसा मानकर चलना चाहिए कि किसी ने तत्त्वार्थभाष्य के उक्त उल्लेख की युगपत् परक भी व्याख्या की थी, जो आज उपलब्ध नहीं है । 'नियमसार' ग्रन्थ जो दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द की कृति समझा जाता है उसमें स्पष्ट रूप से एक मात्र यौगपद्य पक्ष का ( गा० १५६ ) ही उल्लेख है | पूज्यपाद देवनन्दी ने भी तत्त्वार्थ सूत्र की व्याख्या 'सर्वार्थसिद्धि'' में एक मात्र युगपत् पक्ष का ही निर्देश किया है । श्री कुन्दकुन्द और पूज्यपाद दोनों दिगम्बरीय परंपरा के प्राचीन विद्वान् हैं और दोनों की कृतियों में एक मात्र यौगपद्य पक्ष का स्पष्ट उल्लेख है । पूज्यपाद के उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समंतभद्र ने भी अपनी 'तमीमांसा' में एकमात्र यौगपद्य पक्ष का उल्लेख किया है । यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि कुन्दकुंद, पूज्यपाद और समंतभद्रइन तीन्हों ने अपना अभिमत यौगपद्य पक्ष बतलाया है; पर इनमें से किसी ने यौगपद्यविरोधी क्रमिक या अभेद पक्ष का खण्डन नहीं किया है । इस तरह हमें श्री कुन्दकुन्द से समंतभद्र तक के किसी भी दिगम्बराचार्य की कोई ऐसी कृति भी उपलब्ध नहीं है जिसमें क्रमिक या भेद पक्ष का खण्डन हो । ऐसा खण्डन हम सबसे पहले कलंक की कृतियों में पाते हैं। भट्ट कलंक ने समंतभद्रीय श्रातमीमांसा की 'अष्टशती' व्याख्या में यौगपद्य पक्ष का स्थापन करते हुए क्रमिक पक्ष का, संक्षेप में पर स्पष्ट रूप में खण्डन किया है और अपने 'राजवार्तिक' ४ भाष्य में तो क्रम पक्ष माननेवालों को सर्वज्ञनिन्दक कहकर उस पक्ष की अग्राह्यता की संकेत किया है । तथा उसी राजवार्तिक में दूसरी जगह ( ६. १०. १४-१६) उन्होंने भेद पक्ष की अग्राह्यता की ओर भी स्पष्ट इशारा किया है । कलंक ने भेद पक्ष के समर्थक सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क नामक ग्रंथ में पाई जानेवाली दिवाकर की भेदविषयक नवीन व्याख्या ( सन्मति २.२५ ) का शब्दशः उल्लेख करके उसका जवाब इस तरह दिया है कि जिससे अपने 3 १ 'साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति । तत् छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते । निरावरणेषु युगपत् ।’– सर्वार्थ०, १. ६ । २ 'तत्त्वज्ञानं प्रमाणं तें युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥' --आप्तमी०, का० १०१ । ३ तज्ज्ञानदर्शनयोः क्रमवृत्तौ हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं स्यात् । कुतस्तत्सिद्धिरिति चेत् सामान्यविशेष विषययोर्विगतावरणयोरयुगपत् प्रतिभासायोगात् प्रतिबन्धकान्तराभावात्' - अष्टशती - अष्टसहस्त्री, पृ० २८१ । ४ राजवार्तिक, ६. १३.८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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