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________________ ४४ जैन धर्म और दर्शन अभिमत युगपत् पक्ष पर कोई दोष न आवे और उसका समर्थन भी हो । इस तरह हम समूचे दिगम्बर वाङ्मय को लेकर जब देखते हैं तब निष्कर्ष यही निकलता. है कि दिगम्बर परंपरा एकमात्र यौगपद्य पक्ष को ही मानती श्राई है और उसमें अकलंक के पहले किसी ने क्रमिक या अभेद पक्ष का खण्डन नहीं किया है केवल अपने पक्ष का निर्देश मात्र किया है । अब हम श्वेताम्बरीय वाड्मय की ओर दृष्टिपात करें। हम ऊपर कह चुके हैं कि तत्त्वार्थभाष्य के पूर्ववर्ती उपलब्ध आगमिक साहित्य में से तो सीधे तौर से केवल क्रमपक्ष ही फलित होता है। जबकि तत्त्वार्थभाष्य के उल्लेख से युगपत् पक्ष का बोध होता है । उमास्वाति और जिनभद्र क्षमाश्रमण-दोनों के बीच कम से कम दो सौ वर्षों का अन्तर है । इतने बड़े अन्तर में रचा गया कोई ऐसा श्वेताम्बरीय ग्रंथ अभी उपलब्ध नहीं है जिसमें कि यौगपद्य तथा अभेद पक्ष की चर्चा या परस्पर खण्डन-खण्डन हो' । पर हम जब विक्रमीय सातवीं सदी में हुए जिनभद्र क्षमाश्रमण की उपलब्ध दो कृतियों को देखते हैं तब ऐसा अवश्य मानना पड़ता है कि उनके पहले श्वेताम्बर परंपरा में योगपद्य पक्ष की तथा अभेद पक्ष की, केवल स्थापना ही नहीं हुई थी बल्कि उक्त तीनों पक्षों का परस्पर खण्डन-मण्डन वाला साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में बन चुका था । जिनभद्र गणि ने अपने अति विस्तृत विशेषावश्यकभाष्य' (गा० ३०६० से) में क्रमिक पक्ष का आगमिकों की ओर से जो विस्तृत सतर्क स्थापन किया है उसमें उन्होंने योगपद्य तथा अभेद पक्ष का आगमानुसरण करके विस्तृत खण्डन भी किया है । तदुपरान्त उन्होंने अपने छोटे से विशेषणवती' नामक ग्रंथ (गा० १८४ से) में तो, विशेषावश्यकभाष्य की अपेक्षा भी अत्यन्त विस्तार से अपने अभिमत १ नियुक्ति में 'सव्वस्स केवलिस्स वि ( पाठान्तर 'स्सा') जुगवं दो नस्थि उपांगा'-गा. ६७६-यह अंश पाया जाता है जो स्पष्टरूपेण केवली में माने जानेवाले यौगपद्य पक्ष का ही प्रतिवाद करता है । हमने पहले एक जगह यह संभावना प्रकट की है कि नियुक्ति का अमुक भाग तत्त्वार्थभाष्य के बाद का भी संभव है । अगर वह संभावना ठीक है तो नियुक्ति का उक्त अंश जो यौगपद्य पक्ष का प्रतिवाद करता है वह भी तत्त्वार्थभाष्य के योगपद्यप्रतिपादक मन्तव्य का विरोध करता हो ऐसी संभावना की जा सकती है । कुछ भी हो, पर इतना तो स्पष्ट है कि श्री जिनभद्रगणि के पहले यौगपद्य पक्षका खण्डन हमें एक मात्र नियुक्ति के उक्त अश के सिवाय अन्यत्र कहीं अभी उपलब्ध नहीं; और नियुक्ति में अभेद पक्ष के खण्डन का तो इशारा भी नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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