SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 792
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४२ जैन धर्म और दर्शन साक्षात्कार ही केवलज्ञान है ऐसा वेदान्तमन्तव्य तो किसी तरह भी जैनसंमत हो नहीं सकता। (E) केवलज्ञान-दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा [१०२ ] केवलज्ञान की चर्चा का अंत करते हुए उपाध्यायजी ने ज्ञान बिन्दु में केवलज्ञान और केवलदर्शन के संबंध में तीन पक्षभेदों अर्थात् विप्रतिप्रत्तियों को नव्य न्याय की परिभाषा में उपस्थित किया है, जो कि जैन परंपरा में प्राचीन समय से प्रचलित रहे हैं । वे तीन पक्ष इस प्रकार हैं (१) केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों उपयोग भिन्न हैं और वे एक साथ उत्पन्न न होकर क्रमशः अर्थात् एक-एक समय के अंतर से उत्पन्न होते रहते हैं। (२) उक्त दोनों उपयोग भिन्न तो हैं पर उनकी उत्पत्ति क्रमिक न होकर युगपत् अर्थात् एक ही साथ होती रहती है। (३) उक्त दोनों उपयोग वस्तुतः भिन्न नहीं हैं। उपयोग तो एक ही है पर उसके अपेक्षाविशेषकृत केवलज्ञान और केवलदर्शन ऐसे दो नाम हैं। अतएव नाम के सिवाय उपयोग में कोई भेद जैसी वस्तु नहीं है। उक्त तीन पक्षों पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करना जरूरी है । वाचक उमास्वाति, जो विक्रम की तीसरी से पाँचवी शताब्दी के बीच कभी हुए जान पड़ते हैं, उनके पूर्ववर्ती उपलब्ध जैन वाङ्मय को देखने से जान पड़ता है कि उसमें सिर्फ एक ही पक्ष रहा है और वह केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमवर्तित्व का। हम सबसे पहले उमास्वाति के 'तत्त्वार्थभाष्य' में ऐसा उल्लेख' पाते हैं जो स्पष्टरूपेण युगपत् पक्ष का ही बोध करा सकता है । यद्यपि तत्त्वार्थभाष्यगत उक्त उल्लेख की व्याख्या करते हुए विक्रमीय ८-६ वीं सदी के विद्वान् श्वे० सिद्धसेनगणि ने उसे क्रमपरक ही बतलाया है और साथ ही अपनी तत्त्वार्थ-भाष्य-व्याख्या में युगपत् तथा अभेद पक्ष का खण्डन भी किया हैं; पर इस पर अधिक ऊहापोह करने से यह जान पड़ता है कि सिद्धसेन गणि के पहले किसी ने तत्त्वार्थभाष्य की व्याख्या करते हुए उक्त उल्लेख को युगपत् परक भी १ मतिज्ञानादिषु चतुएं पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् । संभिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत् सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति ।-तत्त्वार्थभा० १.३१ । २ देखो, तत्त्वार्थभाष्यटीका, पृ० १११-११२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy