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________________ निर्विकल्प बोध ज्ञान निर्विकल्पक बोध है; इसको जैन परिभाषा में शुद्धद्रव्यनयादेश भी कहा जाता है। (२) ऐसा निर्विकल्पक बोध का अर्थ बतला कर उन्होंने यह भी बतलाया है कि निर्विकल्पक बोध जैसे चेतन द्रव्य में प्रवृत्त हो सकता है वैसे ही घटादि जड़ द्रव्य में भी प्रवृत्त हो सकता है। यह नियम नहीं कि वह चेतनद्रव्यविषयक ही हो। विचारक, जिस-जिस जड़ या चेतन द्रव्य में पर्यायों के संबंध का असंभव विचार कर केवल द्रव्य स्वरूप का ही ग्रहण करेगा, उस-उस जड़ चेतन सभी द्रव्य में निर्विकल्पक बोध हो सकेगा।। (३) [६२ ] उपाध्यायजी ने यह भी स्पष्ट किया है कि ज्ञानस्वरूप आत्मा का स्वभाव ही ऐसा है कि जो एक मात्र निर्विकल्पक ज्ञानस्वरूप नहीं रहता । वह जब शुद्ध द्रव्य का विचार छोड़कर पर्यायों की ओर झुकता है तब वह निर्विकल्पक ज्ञान के बाद भी पर्यायसापेक्ष सविकल्पक ज्ञान भी करता है। अतएव यह मानना ठीक नहीं कि निर्विकल्पक बोध के बाद सविकल्पक बोध का संभव ही नहीं। (४) वेदान्त दर्शन कहता है कि ब्रह्म का निर्विकल्पक बोध 'तत्त्वमसि' इत्यादि शब्दजन्य ही हैं । इसके विरुद्ध उपाध्यायजी कहते हैं [ पृ० ३०, पं० २४ ] कि ऐसा निर्विकल्पक बोध पर्यायविनिर्मुक्तविचारसहकृत मन से ही उत्पन्न होने के कारण मनोजन्य मानना चाहिए, नहीं कि शब्दजन्य । उन्होंने अपने अभिमत मनोजन्यत्व का स्थापन करने के पक्ष में कुछ अनुकूल श्रुतियों को भी उद्धृत किया है [ ६४,६५] । (५) [६३ ] सामान्य रूप से जैनप्रक्रिया में प्रसिद्धि ऐसी है कि निर्विकल्पक बोध तो अवग्रह का नामान्तर है । ऐसी दशा में यह प्रश्न होता है कि तब उपाध्यायजी ने निर्विकल्पक बोध को मानसिक कैसे कहा ? क्योंकि अवग्रह विचार सहकृतमनोजन्य नहीं है; जब कि शुद्ध-द्रव्योपयोगरूप निर्विकल्पक बोध विचारसहकृतमनोजन्य है। इसका उत्तर उन्होंने यह दिया है कि जिस विचारसहकृतमनोजन्य शुद्धद्रव्योपयोग को हमने निर्विकल्पक कहा है वह ईहात्मकविचारजन्य अपायरूप है और नाम-जात्यादिकल्पना से रहित भी है।' __इन सब जैनाभिमत मन्तव्यों का स्पष्टीकरण करके अन्त में उन्होंने यही सूचित किया है कि सारी वेदान्तप्रक्रिया एक तरह से जैनसंमत शुद्धद्रव्यनयादेश की ही विचारसरणि है। फिर भी वेदान्तवाक्यजन्य ब्रह्ममात्र का १ देखो, ज्ञान बिन्दु टिप्पण, पृ० ११४. पं० २५ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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