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________________ ૪૪ जैन धर्म और दर्शन (४) रागादि दोषों का विचार [ ६५ ] सर्वज्ञ ज्ञान की उत्पत्ति के क्रम के संबन्ध में जो तुलना ऊपर की गई है उससे स्पष्ट है कि राग, द्वेष आदि क्लेशों को ही सब दार्शनिक केवलज्ञान का वारक मानते हैं। सबके मत से केवलज्ञान की उत्पत्ति तभी संभव है जब कि उक्त दोषों का सर्वथा नाश हो । इस तरह उपाध्यायजी ने रागादि दोषों में सर्वसंमत केवल - ज्ञानावारकत्व का समर्थन किया है और पीछे उन्होंने रागादि दोषों को कर्मजन्य स्थापित किया है । राग, द्वेष आदि जो चित्तगत या श्रात्मगत दोष हैं उनका मुख्य कारण कर्म अर्थात् जन्म-जन्मान्तर में संचित श्रात्मगत दोष ही हैं। ऐसा स्थापन करने में उपाध्यायजी का तात्पर्य पुनर्जन्मवाद का स्वीकार करना है । उपाध्यायजी ग्रास्तिकदर्शनसम्मत पुनर्जन्मवाद की प्रकिया का श्रय लेकर ही केवलज्ञान की प्रक्रिया का विचार करते हैं । अतएव इस प्रसंग में उन्होंने रागादि दोषों को कर्मजन्य या पुनर्जन्ममूलक न माननेवाले मतों की समीक्षा भी की है। ऐसे मत तीन हैं। जिनमें से एक मत [ ६६ ] यह है, क़ि राग कफजन्य है, द्वेष पित्तजन्य है और मोह वातजन्य है । दूसरा मत [ ६७ ] यह है कि राग शुक्रोपचयजन्य है इत्यादि । तीसरा मत [ ६८ ] यह है कि शरीर में पृथ्वी और जल तत्त्व की वृद्धि से राग पैदा होता है, तेजो और वायु की वृद्धि से द्वेष पैदा होता है, जल और वायु की वृद्धि से मोह पैदा होता है । इन तीनों मतों में राग, द्व ेष और मोह का कारण मनोगत या श्रात्मगत कर्म न मानकर शरीरगत वैषम्य ही माना गया है । यद्यपि उक्त तीनों मतों के अनुसार राग, द्वेष और मोह के कारण भिन्न-भिन्न हैं; फिर भी उन तीनों मत की मूल दृष्टि एक ही है और वह यह है कि पुनर्जन्म या पुनर्जन्मसंबद्ध कर्म मानकर राग, द्वेष आदि दोषों की उत्पत्ति घटाने की कोई जरूरत नहीं है । शरीरगत दोषों के द्वारा या शरीरगत वैषम्य के द्वारा ही रागादि की उत्पत्ति घटाई सकती है । यद्यपि उक्त तीनों मतों में से पहले ही को उपाध्यायजी ने बार्हस्पत्य अर्थात् चार्वाक मत कहा है, फिर भी विचार करने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उक्त तीनों मतों की आधारभूत मूल दृष्टि, पुनर्जन्म बिना माने ही वर्त्तमान शरीर का आश्रय लेकर विचार करनेवाली होने से, असल में चार्वाक दृष्टि ही है । इसी दृष्टि का आश्रय लेकर चिकित्साशास्त्र प्रथम मत को उपस्थित करता है; जब कि कामशास्त्र दूसरे मत को उपस्थित करता है । तीसरा मत संभवतः हठयोग का है । उक्त तीनों की समालोचना करके उपाध्यायजी ने यह बतलाया है कि राग, द्वेष और मोह के उपशमन तथा क्षय का सच्चा व मुख्य उपाय आध्यात्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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