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________________ नैरात्म्य आदि भावना ४३५ अर्थात् ज्ञान-ध्यान द्वारा श्रात्मशुद्धि करना ही है; न कि उक्त तीनों मतों के द्वारा प्रतिपादन किए जानेवाले मात्र भौतिक उपाय । प्रथम मत के पुरस्कर्त्ताओं ने वात, पित्त, कफ इन तीन धातुओं के साम्य सम्पादन को ही रागादि दोषों के शमन का उपाय माना है । दूसरे मत के स्थापकों ने समुचित कामसेवन आदि को ही रागादि दोषों का शमनोपाय माना है । तीसरे मत के समर्थकों ने पृथिवी, जल आदि तत्वों के समीकरण को ही रागादि दोषों का उपशमनोपाय माना है । उपाध्यायजी ने उक्त तीनों मतों की समालोचना में यही बतलाने की कोशिश की है कि समालोच्य तीनों मतों के द्वारा, जो-जो रागादि के शमन का उपाय बतलाया जाता है वह वास्तव में राग आदि दोषों का शमन कर ही नहीं सकता । वे कहते हैं कि वात आदि धातुओं का कितना ही साम्य क्यों न सम्पादित किया जाए, समुचित कामसेवन आदि भी क्यों न किया जाए, पृथिवी आदि तत्त्वों का समीकरण भी क्यों न किया जाए, फिर भी जब तक आत्म-शुद्धि नहीं होती तब तक राग-द्वेष आदि दोषों का प्रवाह भी सूख नहीं सकता । इस समालोचना से उपाध्यायजी ने पुनर्जन्मवादिसम्मत आध्यात्मिक मार्ग का ही समर्थन किया है । उपाध्यायजी की प्रस्तुत समालोचना कोई सर्वथा नयी वस्तु नहीं है । भारत वर्ष में आध्यात्मिक दृष्टि वाले भौतिक दृष्टि का निरास हजारों वर्ष पहले से करते आए हैं । वही उपाध्यायजी ने भी किया है- पर शैली उनकी नई है । 'ज्ञानबिन्दु' में उपाध्यायजी ने उपर्युक्त तीनों मतों की जो समालोचना की है वह धर्मकीर्ति के 'प्रमाणवार्त्तिक' और शान्तरक्षित के 'तत्त्वसंग्रह' में भी पाई जाती है'। ( ५ ) नैरात्म्य आदि भावना [ ६६ ] पहले तुलना द्वारा यह दिखाया जा चुका है कि सभी आध्यात्मिक दर्शन भावना - ध्यान द्वारा ही ज्ञान का सर्वथा नाश और केवलज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं । जब सार्वज्ञ्य प्राप्ति के लिए भावना आवश्यक है तब यह भी . विचार करना प्राप्त है कि वह भावना कैसी अर्थात् किंविषयक ? भावना के स्वरूप विषयक प्रश्न का जवाब सब का एक नहीं है । दार्शनिक शास्त्रों में पाई जानेवाली भावना संक्षेप में तीन प्रकार की है— नैरात्म्यभावना, ब्रह्मभावना और विवेकभावना । नैरात्म्यभावना बौद्धों की है । ब्रह्मभावना औपनिषद् दर्शन की है। बाकी के सब दर्शन विवेकभावना मानते हैं । नैरात्म्य १ देखो, ज्ञानबिन्दु टिप्पण पृ० १०६ पं० २६ से । २ देखो, ज्ञानबिन्दु टिप्पण पृ० १०६ पं० ३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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