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मतिज्ञान विषयक नया ऊहापोह
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बिंदु में जैन श्रुत की उन विचारों के साथ तुलना करने में किया है, जो अभ्यासी को खास मनन करने योग्य है ।
( ६ ) मतिज्ञान के विशेष निरूपण में नया ऊहापोह
[ ३४ ] प्रसंगप्राप्त श्रुत की कुछ बातों पर विचार करने के बाद फिर ग्रंथकार ने प्रस्तुत मतिज्ञान के विशेषों—भेदों का निरूपण शुरू किया है । जैन वाङ्मय में मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा – ये चार भेद तथा उनका परस्पर कार्य कारणभाव प्रसिद्ध है । श्रागम और तर्कयुग में उन भेदों पर बहुत कुछ विचार किया गया है । पर उपाध्यायजी ने ज्ञानबिंदु में जो उन भेदों की तथा उनके परस्पर कार्य कारणभाव की विवेचना की है वह प्रधानतया विशेषावश्यकभाष्यानुगामिनी है ' । इस विवेचना में उपाध्यायजी ने पूर्ववर्ती जैन साहित्य का सार तो रख ही दिया है; साथ में उन्होंने कुछ नया ऊहापोह भी अपनी ओर से किया है । यहाँ हम ऐसी तीन खास बातों का निर्देश करते हैं जिन पर उपाध्यायजी ने नया ऊहापोह किया है
( १ ) प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया में दार्शनिकों का ऐकमत्य
( २ ) प्रामाण्यनिश्चय के उपाय का प्रश्न
( ३ ) अनेकान्त दृष्टि से प्रामाण्य के स्वतस्त्व - परतस्त्व की व्यवस्था
( १ ) प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया में शब्दभेद भले ही हो पर विचारभेद किसी का नहीं है । न्याय-वैशेषिक आदि सभी वैदिक दार्शनिक तथा बौद्ध दार्शनिक भी यही मानते हैं कि जहाँ इंद्रियजन्य और मनोजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वहाँ सबसे पहले विषय और इंद्रिय का सन्निकर्ष होता है । फिर निर्विकल्पक ज्ञान, अनन्तर सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है जो कि संस्कार द्वारा स्मृति को भी पैदा करता है । कभी-कभी सविकल्पक ज्ञान धारारूप से पुनः-पुनः हुआ करता है । प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया का यह सामान्य क्रम है । इसी प्रक्रिया को जैन तत्त्वज्ञों ने अपनी व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा की खास परिभाषा में बहुत पुराने समय से बतलाया है । उपाध्यायजी ने इस ज्ञानबिंदु में, परम्परागत जैनप्रक्रिया में खास करके दो विषयों पर प्रकाश डाला है। पहला है कार्य-कारणभाव का परिष्कार और दूसरा है दर्शनान्तरीय परिभाषा के साथ जैन परिभाषा की तुलना अर्थावग्रह के प्रति व्यञ्जनावग्रह की, और ईहा के प्रति अर्थावग्रह
१ देखो, विशेषावश्यकभाष्य, गा० २६६ - २६६ । २ देखो, प्रमाणमीमांसा टिप्पण, पृ० ४५ ।
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