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जैन धर्म और दर्शन की और इसी क्रम से आगे धारण के प्रति अवाय की कारणता का वर्णन तो जैन वाङ्मय में पुराना ही है, पर नव्यन्यायशास्त्रीय परिशीलन ने उपाध्यायजी से उस कार्य-कारणभाव का प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु में सपरिष्कार वर्णन कराया है, जो कि अन्य किसी जैन ग्रंथ में पाया नहीं जाता। न्याय श्रादि दर्शनों में प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया चार अंशों में विभक्त है। [३६ ] पहला कारणांश [ पृ० १० पं० २० ] जो सन्निकृष्ट इंद्रिय रूप है। दूसरा व्यापारांश [ ४६ ] जो सन्निकर्ष एवं निर्विकल्प ज्ञानरूप है। तीसरा फलांश [ पृ० १५ पं० १६ ] जो सविकल्पक ज्ञान या निश्चयरूप है और चौथा परिपाकांश [ ४७ ] जो धारावाही ज्ञानरूप तथा संस्कार, स्मरण आदि रूप है। उपाध्यायजी ने व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह
आदि पुरातन जैन परिभाषात्रों को उक्त चार अंशों में विभाजित करके स्पष्ट रूप से सूचना की है कि जैनेतर दर्शनों में प्रत्यक्ष ज्ञान की जो प्रक्रिया है वही शब्दान्तर से जैनदर्शन में भी है। उपाध्यायजी व्यञ्जनावग्रह को कारणांश, अर्थावग्रह तथा ईहा को व्यापारांश, अवाय को फलांश और धारणा को परिपाकांश कहते हैं, जो बिलकुल उपयुक्त है। .
बौद्ध दर्शन के महायानीय 'न्यायबिन्दु' आदि जैसे संस्कृत ग्रंथों में पाई जानेवाली, प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रियागत परिभाषा, तो न्यायदर्शन जैसी ही है; पर हीनयानीय पालि ग्रंथों की परिभाषा भिन्न है । यद्यपि पालि वाङ्मय उपाध्यायजी को सुलभ न था फिर उन्होंने जिस तुलना की सूचना की है, उस तुलना को, इस समय सुलभ पाली वाङमय तक विस्तृत करके, हम यहाँ सभी भारतीय दर्शनों की उक्त परिभाषागत तुलना बतलाते हैं१ न्यायवशेषिकादि वैदिकदर्शन २ जैन दर्शन ३ पालि अभिधर्म'
तथा महायानीय बौद्धदर्शन १ सन्निकृष्यमाण इन्द्रिय १ व्यजनावग्रह १ श्रारम्मण का इन्द्रियया
आपाथगमन-इन्द्रिय'विषयेन्द्रियसन्निकर्ष
आलम्बनसंबंध तथा
आवजन २ निर्विकल्पक
२ अर्थावग्रह २ चक्षुरादिविज्ञान ३ संशय तथा संभावना ३ ईहा ३ संपटिच्छन, संतीरण
The Psychological attitude of early Buddhist Philosophy : By Anagarika B. Govinda : P. 184. अभिधम्मत्थसंगहो ४.८।
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