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________________ ४२० जैन धर्म और दर्शन पूर्वगत गाथा का व्याख्यान करते हुए किया है, वह सारा विचार, श्रागम (श्रुति) प्रामाण्यवादी नैयायिकादि सभी वैदिक दर्शनों की परंपरा में एक-सा है और ऋति विस्तृत पाया जाता है । इसकी शाब्दिक तुलना नीचे लिखे अनुसार है२. जैनेतर - न्यायादि १. जैन श्रुत आगम - शब्दप्रमाण द्रव्य भाव शब्द व्यंजनाक्षर संज्ञाक्षर लब्ध्यक्षर शब्द 1 शक्ति Jain Education International १ देखो, वाक्यपदीय १. ११४ । २ देखो, तत्त्वार्थ श्लो० पृ० २४०, २४१ । ३ देखो, स्याद्वादरत्नाकर, पृ० १७ । I लिपि व्यक्ति - बोध (उपयोग ) पदार्थोपस्थिति, संकेतज्ञान, आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति, तात्पर्यज्ञान आदि शाब्दबोध के कारण जो नैयायिकादि परंपरा में प्रसिद्ध हैं, उन सबको उपाध्यायजी, ने शाब्दबोध - परिकर रूप से शाब्दबोध में ही समाया है। इस जगह एक ऐतिहासिक सत्य की ओर पाठकों का ध्यान खींचना जरूरी है । वह यह कि जब कभी, किसी जैन श्राचार्य ने, कहीं भी नया प्रमेय देखा तो उसका जैन परम्परा की परिभाषा में क्या स्थान है यह बतलाकर, एक तरह से जैन श्रुत की श्रुतान्तर से तुलना की है । उदाहरणार्थ - भर्तृहरीय ' वाक्यपदीय' में वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा रूप से जो चार प्रकार की भाषाओं का बहुत ही विस्तृत और तलस्पर्शी वर्णन है, उसका जैन परम्परा की परिभाषा में किस प्रकार समावेश हो सकता है, यह स्वामी विद्यानन्द ने बहुत ही स्पष्टता और यथार्थता से सबसे पहले बतलाया है, जिससे जैन जिज्ञासुत्रों को जैनेतर विचार का और जैनेतर जिज्ञासुत्रों को जैन विचार का सरलता से बोध हो सके । विद्यानन्द का वही समन्वय वादिदेवसूरि ने अपने ढंग से वर्णित किया है । उपाध्यायजी ने भी, न्याय आदि दर्शनों के प्राचीन और नवीन न्यायादि ग्रंथों में, जो शाब्दबोध और गम प्रमाण संबंधी विचार देखे और पढ़े उनका उपयोग उन्होंने ज्ञान * शाब्दबोध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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